खा़र होने की भी कीमत चुकाई है मैनेगुलों के जख्म जिगर में छुपाये फिरता हूँ!कभी ज़ुल्फ़ों की छाँव में भी पैर जलते हैंकभी सेहरा को भी सर पे उठाये फ़िरता हूँ!अजीब फ़िज़ा है शहर की ये मक़तल जैसीबेगुनाह हूँ मगर मूँह छुपाये फ़िरता हूँ!लूट लेंगे सब मिल कर शरीफ़ लोग है ये,शहर-ए- आबाद में फ़कीरी बचाये फ़िरता हूँ!