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पुराने किले में बिता अक्टूबर का एक दिन

"मैं पुराने किताबों के अलमारी के पास चला आया..जैसे वहां कोई छिपा खज़ाना हो. हर कमरे में कितने भेद भरे कोने होते हैं, वही किताबें होती हैं जो हर घर में होती हैं, कहीं से चाक़ू बहार निकल आता है, कहीं हाथ छुआते ही एक दूसरा घर खुल जाता है, एक तस्वीर, एक किताब, एक तोहफा – घर के भीतर एक दूसरा घर... एक रौशनी, एक दरवाज़ा, दिल्ली के पुराने किले में बिता अक्टूबर का वो दिन, एक अधूरी कहानी और प्रिया. ..जाने इस बार की दिवाली में घर की सफाई ने क्या क्या याद दिला दिया. "

वह प्रिया के दिल्ली आने के दिन थे. वो अपनी छुट्टियों में दिल्ली आई थी. मेरे घर वो पहली बार भैया और भाभी की एनिवर्सरी के दिन आई थी. उस रात ज़ोरदार बारिश हुई थी. रात के ढाई बजे प्रिया ने मुझे फ़ोन कर के धमकाया था और अगले दिन सुबह उसनें लोदी गार्डन घुमने के लिए बुला लिया था. खान मार्केट के एक कैफे में हमनें सुबह की कॉफ़ी पी थी और लोदी गार्डन के झील के पास चले आये थे. बहुत देर तक हम दोनों झील के किनारे लगी सीमेंट की एक बेंच पर एक दुसरे का हाथ थामे बैठे रहे थे. झील में तैरती बत्तखों को देखकर प्रिया को अपनी दीदी की याद आ गयी थी, और उसनें मेरे कंधे पर अपना सर टिका कर अपनी आखें बंद कर ली थी. हलकी बारिश होने लगी थी और उसकी आँखें भींग आई थी. हम बहुत देर तक उस बेंच पर बैठे रहे, भींगते हुए.

भींगते हुए ही हम दिल्ली गेट के पास डिलाइट सिनेमा हॉल पहुचे, जहाँ एक फिल्म की टिकट प्रिया ने पहले से ले रखी थी. प्रिया के फिल्म देखने के प्लान से मैं थोड़ा चिढ़ सा गया था, इतने रूमानी मौसम में हॉल में बैठकर फिल्म देखने से ज्यादा डिप्रेसिंग चीज़ दूसरी कोई नहीं हो सकती. लेकिन प्रिया पर तो फिल्म देखने का भूत सवार था. डिलाइट सिनेमा हॉल कुछ ख़ास वजह से प्रिया के सबसे पसंदीदा थिएटर में से एक था. हम दोनों डिलाइट पहुँच तो गए थे, लेकिन प्रिया ने मुझे अब तक नहीं बताया था कि उसनें कौन सी फिल्म की टिकट ले रखी है. डिलाइट में दो सिनेमा के स्क्रीन हैं, दोनों पर दो अलग अलग फ़िल्में लगी थी. एक मेरी देखी हुई थी, और दूसरी मैंने नहीं देखी थी. मुझे लगा तो था कि जिस फिल्म को मैंने नहीं देखी है, प्रिय ने उसी फिल्म की टिकट ली होगी. लेकिन प्रिया ने मेरी देखी हुई फिल्म की ही टिकट ले रखी थी. थोडा सा मैं इरिटेट भी हो गया, “तुम्हें तो मालूम था मैंने ये फिल्म देख ली और फिर भी तुमनें उसी फिल्म की टिकट दोबारा से ले ली..” मैंने प्रिया से कहा. लेकिन प्रिया ने मेरी इस इरिटेसन पर ज्यादा ध्यान ही नहीं दिया. बड़े बेपरवाही से उसनें कहा, “दूसरी बार देख लेने में जेल नहीं हो जाएगी तुम्हें...”

प्रिया मुझे ये फिल्म दोबारा क्यों दिखाने को उत्सुक थी, ये बात मुझे फिल्म के दौरान मालूम चल गयी. फिल्म का टाइटल उस शहर के नाम पर था, जहाँ प्रिया उन दिनों पढ़ रही थी. प्रिया चाहती थी फिल्म के जरिये वो मुझे अपना शहर लन्दन दिखाए. उसके इस पागलपन पर मुझे ऐक्चूअली हँसी आ गयी थी. “क्या मतलब है यार? तुम बस एक शहर दिखाने के लिए मुझे तीन घंटे इस सिनेमा हॉल में बिठाए रहोगी? इससे तो बेहतर होता कि घर पर आराम से बैठकर तुम मुझे लन्दन की डाक्यूमेन्टरी दिखा देती..” प्रिया ने मेरी इस बात का कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि मुझे ऐसे आँखें तरेर कर देखा कि मैंने आगे कुछ भी बोलना उचित नहीं समझा और चुपचाप उसके पीछे पीछे हॉल के अन्दर चला आया. पूरे फिल्म के दौरान उसनें अपने उस शहर के बारे में बहुत कुछ बताया. कुछ तो मेरी समझ में आया भी, बाकी बाउंसर की तरह मेरे सर के ऊपर से निकल गया.

जब हम डिलाइट से निकले तो बारिश लगभग थम चुकी थी. फिल्म देखने के बाद का प्लान बड़ा सिंपल और सीधा सा था. फिल्म के बाद हमें चांदनी चौक जाना था, जहाँ प्रिया को पराठे वाली गली के ‘ओवररेटेड’ पराठे खाने थे, उसके बाद हमें लाल किला जाना था, और फिर पुराने किले में शाम बितानी थी.

सुनने में बड़ा सिंपल प्लान लग रहा है न? बिना किसी पेंच के? लेकिन जब बात प्रिया की हो रही हो तो कोई भी प्लान उतना सिंपल नहीं होता जितना आप एक्स्पेक्ट कर रहे होते हैं. एक्चुअली प्रिया के साथ तो आप कुछ भी पहले से एक्स्पेट कर ही नहीं सकते, वो कहते हैं न, ‘Expect The Unexpected’, वही होता है प्रिया के साथ हमेशा.

दिल्ली गेट से चांदनी चौक ज्यादा दूर नहीं थी. दरयागंज वाली सीधी सड़क थी जो चांदनी चौक जाती थी. रिक्शा या ऑटो से जाए तो दिल्ली गेट से चांदनी चौक पहुँचने में मुश्किल से दस मिनट का वक़्त लगता है. लेकिन प्रिया और मुझे ये दस मिनट की दूरी तय करने में करीब दो घंटे का वक़्त लग गया था. हम दरयागंज की गलियों में भटक गए थे. हमारा वैसे तो भटकने का कोई इरादा नहीं था, लेकिन हर बार की तरह इस बार भी मैं प्रिया के ओवर कांफिडेंस कॉन्फिडेंस के झांसे में आ गया था.

डिलाइट से निकलते ही मैंने प्रिया से कहा कि बस या फिर ऑटो से हम चांदनी चौक जा सकते हैं. बस का आप्शन तो प्रिया ने सिरे से ही खारिज कर दिया था. उलटे उसनें मुझे डांट दिया था. दिल्ली के बसों में चढ़ना उसे बिलकुल पसंद नही था और ऑटो की बात पर प्रिया ने ये कह कर मुझे चुप करा दिया कि ”जो पैसे ऑटो में खर्च करोगे, उतनी की मुझे कॉफ़ी पिला देना...कितना रोमांटिक मौसम है, चलो न पैदल चलते हैं..”

“पैदल”? मैं थोड़ा चौंक सा गया.
“हाँ, पास में ही तो है..”, प्रिया ने पूरे विश्वास के साथ कहा.

हालाँकि मैं जानता तो था कि दरयागंज वाली सीधी सड़क से पैदल भी जायेंगे तो घूमते टहलते बीस पच्चीस मिनट में चांदनी चौक आराम से पहुँच जायेंगे.. लेकिन प्रिया को सीधे रास्ते पर चलना आता ही नहीं था. डिलाइट के पीछे से जो गली निकल रही थी, उसकी और इशारा करते हुए उसनें कहा, “चलो न, उस गली से चलते हैं. जल्दी पहुँच जायेंगे चांदनी चौक..”

मुझे थोड़ा शक हुआ... “तुम ये रास्ता जानती हो?”, मैंने पूछा.

“अरे बड़ा सीधा सा रास्ता है. बस सीधे चलना है हमें, दो-तीन गलियों को पार करो और सामने चाँदनी चौक का सिसगंज गुरुद्वारा दिख जाएगा तुम्हें..” उसने कुछ ऐसे कॉंफिडेंट होकर रास्ते के बारे में बताया कि जैसे दरयागंज की गलियों से बहुत वाकिफ है. मुझे उस समय दिल्ली आये हुए कुछ ही महीने हुए थे, तो मैं रास्तों से ज्यादा वाकिफ नहीं था. प्रिया के ऐसे कॉन्फिडेंस को देखकर मुझे लगा, दिल्ली में बचपन से रही है, तो शायद रास्तों का आईडिया हो.

प्रिया को लेकिन दरयागंज या पुरानी दिल्ली की गलियों के बारे में कुछ भी अंदाज़ा नहीं था. पराठे वाली गली के अलावा तो प्रिया को पुरानी दिल्ली की किसी गली का नाम तक नहीं पता था. ये बात मुझे तब पता चली जब लगभग एक घंटे तक दरयागंज की गलियों में भटकने के बाद हम वापस दरयागंज के मुख्य सड़क पर गोलचा के पास निकल आये थे. मैं उसी वक़्त समझ गया था, ये बस ऐसे ही मुझे टहला रही है, रास्ते वास्ते का इसे कोई आईडिया नहीं है.

थोडा डांटते हुए उसे मैंने रिक्शे पर बिठाया और वहां से पराठे वाले गली के तरफ हम चल दिए. रिक्शा पर बैठते ही प्रिया बड़ी रुखाई से मुझसे कहा, “तुम्हारी वजह से मैं गलियों में भटक गयी थी. तुमनें मुझे बातों में उलझा लिया था... वरना मैं तो जाने कितनी बार इस रास्ते से आई हूँ”. उसकी इस बात पर मुझे बड़ी तेज़ हँसी आई, जिसे मैंने बड़ी मुश्किल से रोका.

तीन घंटे की फिल्म, और दो घंटे रास्ते में भटकने के बाद हमारे पास इतना वक्त नहीं था कि लाल किला और पुराना किला दोनों घूम लें, दोनों में से किसी एक जगह ही हम जा सकते थे. हालाँकि प्रिया ने तो खूब जिद की, कि वो दोनों जगह घूमेगी, लेकिन मैं अड़ा रहा, कि कोई एक जगह जाना है.

बहुत सोच विचार कर प्रिया ने पुराने किले को चुना. लाल किले से प्रिया को कोई ख़ास लगाव नहीं था. हाँ, पुराना किला प्रिया के दिल के ज्यादा करीब था. हमारी न जाने कितनी यादें पुराने किले से जुड़ी थी. ऐसी बात भी नहीं थी कि सिर्फ मेरे साथ बिताये दिनों की वजह से प्रिया को पुराना किला से लगाव था. शुरुआत से ही पुराना किला उसके दिल के बेहद करीब रहा है. अब इसकी क्या वजह है, ये तो खुद प्रिया को भी नहीं मालूम थी.

वैसे तो प्रिया को दिल्ली के हर ऐतिहासिक ईमारत से प्यार था. हुमायूँ का मकबरा, क़ुतुब मीनार, अग्रसेन की बाउली, लाल किला, हौज़ खास फोर्ट, तुगलकाबाद फोर्ट या फिर पुराना किला.. ये दिल्ली में प्रिया के हैंगआउट प्लेस थे और उसे इन सब जगह जाना और समय बिताना खूब पसंद था. इन सब में लेकिन पुराना किला एक ऐसी जगह थी जहाँ आकर प्रिया को हमेशा ख़ुशी मिलती थी. वो अक्सर कहा करती थी, कि जब भी मैं उदास होती हूँ, यहाँ वक़्त बिताने आ जाती हूँ. यहाँ मेरी उदासियाँ भाग जाया करती हैं.

अब कभी सोचता हूँ तो बड़ा अजीब लगता है, स्कूल के दिनों में प्रिया को इतिहास बिलकुल पसंद नहीं था. अक्सर वो हिस्ट्री के क्लास में सो जाया करती थी. इस वजह से मैडम से खूब डांट भी सुनती थी, लेकिन फिर भी ऐसे हिस्टॉरिकल जगहों से उसे खूब लगाव था. राजा रानियों की ऐतिहासिक कहानियाँ या पुराने हिस्ट्री के नोट्स से वो फैसनेट हो जाया करती थी. वो अक्सर इतिहास की कहानियों से खुद को रिलेट भी कर लेती थी. किसी भी राजा या रानी की कहानी उसनें कहीं पढ़ी या सुनी.. वो उस कहानी में खुद को भी घुसा लेती थी, और फिर अपनी मॉडिफाइड कहानी मुझे सुनाती.


जितने भी ऐसे ऐतिहासिक इमारतें दिल्ली में थीं, वहाँ प्रिया ने अपनी स्टोरी-टेलिंग सेशन के लिए एक ख़ास जगह चुन रखी थी, जहाँ मैं और वो अक्सर बैठते थे, और वो मुझे अपनी मॉडिफाइड कहानियाँ सुनाती थी. पुराने किले में प्रिया की सबसे पसंदीदा जगह थी किला ए कुहना मस्जिद के ठीक सामने लगे पत्थर के रेलिंग, जिनपर बैठना उसे खूब पसंद था. वहाँ से शहर दिखाई देता था. सामने भैरव मंदिर और आईटीओ जाने वाली सड़क साफ़ दिखाई देती थी. उन पत्थरों के नीचे सीढ़ियाँ बनी थी जहाँ किले के पुराने खंडहर थे, प्रिया को उन खंडहरों में घूमना भी खूब पसंद था. खंडहरों में घूमते हुए न जाने कितनी कहानियाँ वो तलाश लिया करती थी, और फिर ऊपर आकर जब हम उन पत्थरों पर बैठते, वो मुझे अपनी तलाश की हुई मनगढ़त कहानियाँ सुनाया करती थी. मुझे ये उसका पागलपन लगता था. कभी कभी उसकी कहानियां एकदम इललॉजिकल होती, तो कभी कभी उसकी कहानियों पर प्यार भी आता था.

“जानते हो? मैं सोचती हूँ काश हमें एक टाइममशीन मिल जाए और हम दोनों फिर से उन्हीं दिनों में चले जाए तो?” उन्हीं पत्थरों के रेलिंग पर बैठे हुए प्रिया ने मेरी तरफ देखा.
“ह्म्म्म...”, मैंने कुछ जवाब नहीं दिया, बस एक उबाऊ सी हामी भर दी.
उसनें बिना मेरी परवाह किये अपनी बात आगे बढ़ाई.. “सोचो, मैं अगर दिल्ली की रानी होती, और तुम....तुम होते मेरे दुश्मन.....”
“दुश्मन.....?? यार तुम हमेशा अपनी कहानियों में मुझे विलन क्यों बना देती हो...” मैंने उसकी बातों को बीच में ही काटते हुए कहा.
“चुप करो, और आगे सुनो.. “ उसनें कहा, “तुम यहाँ दिल्ली पर आक्रमण करने आते हो लेकिन तुम्हें ठीक से लड़ना भी नहीं आता. मेरी पूरी सेना पीछे खड़ी रहती है और मैं अकेले ही तुम्हें और तुम्हारी सेना को हरा देती हूँ. उसके बाद मैं तुम्हें बंदी बना लेती हूँ और हर रोज़ लोहे के बेड़ियों से तुम्हारी खूब कुटाई करती हूँ, और साथ ही साथ तुमसे अपने अपने महल के बर्तन भी धुलवाती हूँ....I mean Just Imagine, अगर ये कहानी सच में हो जाए तो? और क्या पता ऐसा कुछ हुआ भी हो पहले कभी...लोगों ने थोड़े न पूरा इतिहास पढ़ रखा है..” उसनें शरारत भरी नज़रों से मेरी और देखा.

“हम्म...”, मैंने एक लम्बी साँस ली.. “लेकिन ये तो बताया नहीं कि मुझे दुश्मन क्यों बनाया तुमनें? तुम हमेशा अपनी कहानियों में मुझे ऐसे ही रोल क्यों देती हो? कभी जल्लाद बना देती हो, कभी घोड़ा, तो कभी ऐसा गधा जो महल के बहार जंजीरों में जकड़ा रहता है और हर आने जाने वाला व्यक्ति उसे चप्पलों से मारते जाता है. यार कभी ऐसी कहानी भी तो सुनाओ जिसमें तुम रानी बनो और मैं तुम्हारा राजा, महल के बागों में हम रोमांटिक डुएट गायेंगे...सोचो कितनी स्वीट सी होगी हमारी वो कहानी..”

उसनें झाल्लाई सी दृष्टि से मेरी ओर देखा, “अरे यार तुम भी न...Out of the Box सोचो..वही घिसी-घिसाई कहानी अब नहीं अच्छी लगती, और वैसे भी, कहानी में भी तुमसे प्यार करूँ, और ज़िन्दगी में भी? अभी तो तुमसे प्यार कर ही रही हूँ न. एक में ही खुश रहो.. इतने भी अच्छे नहीं हो तुम कि तुम्हें दो बार झेल सकूँ..” ये कहते ही वो सहसा चुप हो गयी. शायद खुद के ही कहे कुछ शब्दों से वो चौंक गयी थी.

चौंक तो मैं भी गया था.

बातों बातों में ही सही, उसनें आज पहली बार ‘प्यार’ शब्द का प्रयोग किया था. मुझसे लड़ने और चिढ़ाने के फ्लो में ही आज उसनें पहली बार इन्डरेक्ट्ली मुझसे कहा था कि वो मुझसे प्यार करती है. वो भी ये बात समझ रही थी. हम दोनों अचानक चुप से हो गए.

उसकी लम्बी ख़ामोशी को मैंने ही तोड़ा.. “चलो मजाक में ही सही, तुमने आज पहली बार इकरार तो किया. मैं भी कह दूँ अब?”
“शट अप..”, उसनें कहा और मेरे होटों पर अपनी उँगलियाँ रख दी. “प्लीज आगे कुछ मत कहना..” वो एकदम चुप हो गयी. उसकी आँखें भींग आई थी. उसका मानना था कि प्यार का ऐसे इज़हार करने से प्यार टूट जाता है. अधुरा रह जाता है. हलाकि उसके इस विश्वास को अक्सर मैं ‘व्हाट रबिश’ कह कर मजाक में उड़ा दिया करता था.

मैंने उसे कई उदाहरण देकर समझाने की कोशिश की थी, कि ये सिर्फ तुम्हारा वहम है..और कुछ नहीं. लेकिन अपने इस विश्वास पर वो अडिग थी. उसनें अपनी ज़िन्दगी में ये देखा था, उसके अन्दर इस बात का भय था कि अगर वो किसी से भी ये कहे कि वो उसे प्यार करती है तो वो उससे दूर चला जाता है. पहले साल उसकी नानी, फिर उसके दुसरे साल दीदी और तीसरे साल छोटा भाई.. तीन साल में ये तीनों अचानक से प्रिया की ज़िन्दगी से बहुत दूर चले गए थे, और इत्तेफाक इतना भयानक था कि तीनों के जाने के एक दो दिन पहले, किसी न किसी तरह से प्रिया ने सबसे कहा था कि वो उनसे कितना प्यार करती है, और तीनों इस दुनिया से चले गए थे. इस बात ने प्रिया को बुरी तरह से झकझोर दिया था.

मैंने बहुत समझाया प्रिया को, कि जो पहले हुआ वो महज एक इत्तेफाक था. लेकिन वो ऐसा नहीं मानती थी. उसके दिल में तो एक डर बैठ गया था. मुझसे दुनिया भर की बातें करती थी वो, हज़ार तरह के रूमानी किस्से सुनाती थी, फिल्मों में हीरो को प्यार का इज़हार करने समय डरते देख थिएटर में ही चिल्ला कर कहती थी, कितना डरपोक आदमी है, आई लव यू भी नहीं कह सकता हीरोइन से? लेकिन खुद उसनें मुझसे कभी प्यार के ये ढाई शब्द कभी नहीं कहे थे, और आज मजाक के फ्लो में ही सही, उसनें मुझसे पहली बार ये बात कही थी. उसका डर अपनी जगह था, लेकिन मैं सिर्फ इस बात से बहुत खुश था कि जो मैं सुनना चाहता था, उसनें आख़िरकार मुझसे कह डाला.

प्रिया बिलकुल खामोश हो गयी थी. उसके चेहरे पर हल्का संकोच और भय घिर आया था. वो मेरी तरफ न देखकर सड़क की तरफ देखने लगी थी.

अक्टूबर की शाम थी, और बारिश की वजह से हवा में हलकी ठंडक आ गयी थी. हम दोनों पत्थरों की रेलिंग पर ही बैठे थे कि अचानक से तेज़ हवा का एक रेला आया, लगा जैसे आँधी चली हो और प्रिया मेरे एकदम करीब आ गयी. उसनें कस कर मेरा कन्धा पकड़ लिया, और अपनी आँखें बंद कर ली. जब हवा थमी, उसने आँखें खोली..वो कुछ देर तक अपलक मुझे देखते रही. “हमारे साथ कुछ गलत तो नहीं होगा...”, उसनें मुझसे पूछा.. “तुम रहोगे न मेरे पास हमेशा...”

उसकी आँखें डबडबा सी गयी थी. मैंने उसका हाथ अपने हाथों में लिया, “हमारे साथ कुछ भी नहीं होगा.. जैसे मैं अभी त


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