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आइआइटी बेहतर या चाय बेचना?

बीते आम चुनाव ने सामाजिक बदलाव में बड़ी भूमिका निभायी है. कांग्रेस की करारी हार और भाजपा की चौतरफा जीत ने लोगों के सोचने का तौर-तरीका बदल दिया है. कुछ बदले या न बदले नयी पीढ़ी की सोच जरूर बदल गयी है. हालिया परिदृश्य में लोगबाग कन्फ्यूज्ड हैं कि वे अपने बच्चों को आइआइटी में दाखिला दिला कर अरविंद केजरीवाल बनायें या चाय की दुकान में काम करा कर नरेंद्र मोदी. और तो और, अब बच्चे अपनी मां-बहन की बात भी सुनने को तैयार नहीं, कहते हैं- ‘मुङो राहुल गांधी नहीं बनना.’ सुनने में आया है कि अर्थशास्त्र पढ़नेवालों की तदाद भी घटने लगी है. जब एक पिता ने अपने बेटे से कहा कि ‘तुम अर्थशास्त्र क्यों नहीं पढ़ते?’ तो छात्र ने टका सा जवाब दिया- ‘यह सब्जेक्ट अब किसी काम का नहीं रहा. एक वक्त था जब देश के नामी-गिरामी अर्थशास्त्रियों को केंद्रीय कैबिनेट में वित्त मंत्री बनाया जाता था. अब तो इसकी जरूरत ही नहीं रही.’ बीच में जब पिता ने टोका, ‘क्यों, डॉ मनमोहन सिंह इतने बड़े अर्थशास्त्री थे तो प्रधानमंत्री  बने कि नहीं?’ बेटा बीच में ही बोल पड़ा, ‘पापा! क्या आप नहीं जानते कि मनमोहन सिंह कम बोलने की अपनी योग्यता के कारण प्रधानमंत्री बनाये गये?’ हां, वकालत के पेशे को अब प्रतिष्ठा की नजर से अवश्य देखा जाने लगा है. बात भी सही है- जिस पेशे ने देश को रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री, कानून मंत्री, दूरसंचार मंत्री, विदेश मंत्री, मानव संसाधन मंत्री वगैरह दिये हों, उसे तो इतनी प्रतिष्ठा मिलनी ही चाहिए. इस बात को वर्तमान सरकार से लेकर पिछली सरकार तक में देखा जा सकता है. वकालत पेशे का एक अहम पहलू यह भी है कि किसी भी सरकार में यह आपको मंत्री तो बनाता ही है, खुदा न खास्ता कहीं अगले चुनाव में आपकी पार्टी की सरकार नहीं बनी या आप हार गये या मान लो आपको मंत्री नहीं बनाया गया, तो बेफिक्र होकर फिर से अदालतों में प्रैक्टिस शुरू कर दो. अभिभावकों का यह भी मानना है कि एक बात का खतरा भविष्य में अवश्य मंडरा सकता है. खतरा यह कि नयी पीढ़ी कहीं यह न सोचने लगे कि ज्यादा लिख-पढ़ कर क्या फायदा, जब हमारी केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री ही सिर्फ इंटर पास हैं. डर यह भी है कि लड़कियां कहीं पढ़ने से ज्यादा टीवी सीरियल, एक्टिंग या मॉडलिंग में रुचि न प्रदर्शित करने लगें. नयी पीढ़ी के एक बड़े वर्ग को यह भी लगने लगा है कि आज जमाना योग्यता का नहीं, किसी का विश्वासपात्र होने का है. अगर आप किसी के विश्वासपात्र हैं तो किसी और योग्यता की आवश्यकता शायद न हो. यानी, मुरली मनोहर जोशी होने से अच्छा है स्मृति इरानी होना! यह एक खतरनाक वक्त है, यह संक्रमणकाल भी है. यह दौर है खुद को खो देने और किसी को जीत लेने का. जो इस दौर को समझ जायेगा, इसे आत्मसात कर लेगा. सिकंदर वही कहलायेगा. आप क्या सोचते हैं..?


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