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आज के नौजवान नौकरी कर रहे हैं या उनका जीना एक सज़ा है

आज के नौजवान बारह से अट्ठारह घंटे की पढ़ाई कर रहे हैं


आज के नौजवान बारह से अट्ठारह घंटे की पढ़ाई कर रहे हैं, नौकरी कर रहे हैं या उनका जीना एक सज़ा की तरह हो गया है, उनका दिमाग़ नॉर्मल नहीं दिखता है, किसी और ही दुनिया में खोये रहते हैं, इस सज़ा को कैसे हम कम करें इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए कि आजकल के जवान लड़का-लड़की का संबंध अपने बुजुर्गों से पूरी तरह से टूट चुका है। माता-पिता और बच्चों में आजकल आधा घंटे या एक घंटे से ज़्यादा बात ही नहीं हो पाती है, पहले तो ऐसा था कि पिता और बेटे में लगातार बात होती रहती थी। माता और बेटी में लगातार बात होती रहती थी। माता के साथ बेटी तीन तीन घंटे तक किचन में मदद किया करती थी, बेटी को टेबल पोंछना, झूठे बरतन उठाना, झाडू मारना पोंछा लगाना सिखाया जाता था। लेकिन अब सारे नौजवान मोबाइल में घुसे रहते हैं, चौबीस में से दस घंटे तक वे मोबाइल में ही घुसे रहते हैं। उन्हें देखकर हैरत होती है कि ये लोग इंसान नॉर्मल हैं या कोई पागल हैं जो लगातार मोबाइल को ही देखे जा रहे हैं। उनको हँसना है तो मोबाइल में जोक्स या शायरी देखकर हँसते हैं, लेकिन आपस में जब बात करते हैं मोबाइल से हटकर तो एक-दूसरे से लड़ने लग जाते हैं, यह अजीब बात हो गयी है कि सामने बैठे इंसान से वे लड़ते रहते हैं और वॉट्स एप पर जो उनकी बात चलती रहती है तो वह उनका दोस्त बन जाता है। दरअसल मोबाइल से हटते ही उनका सिर भन्नाया हुआ होता है, और अब मोबाइल की वजह से उनके सिर पर एक तरह का परमेनेन्ट बोझ जान पड़ता है लगता है किसी ने हमेशा के लिए उनके सिर पर पाँच किलो का पत्थर रख दिया है, जिसके कारण वे बहुत ही चिड़चिड़े होते चले जा रहे हैं, कोई बाहर से कॉल बेल या किवाड़ बजाता है तो वे उठकर दरवाज़ा तक नहीं खोलते हैं, माता पिता से कह देते हैं कि देख लो कौन है। बच्चों के इस तरह एबनॉर्मल होने की वजह से उन्हें २२ की उम्र में ही डिप्रेशन होता चला जा रहा है। एक तरह की सपनीली दुनिया में रहने से उनको ज़रा सा भी दुख सहन नहीं हो पा रहा है, और दुख के आते ही वे बुरी तरह से बीमार हो जा रहे हैं, जैसे परीक्षा में नंबर कम आये तो तीन दिन तक रो रोकर बुरा हाल कर लेते हैं, कोई रिश्तेदार उनसे आगे निकल गया तो डिप्रेशन में चले जाते हैं। ख़ैर यह गंदी आदत तो माता पिता ने ही उनको सिखायी है। उनके हाथ का मोबाइल एक तरह का नशा हो चुका है। बस, रेल, कार, रिक्शा, मोटरसाइकिल में हर वक्त वे मोबाइल पर ही लगे रहते हैं सच कहा जाये तो यह एक तरह का सज़ा का जीवन हो चुका है। दर्दनाक बात यह है कि यह सज़ा उनको सज़ा नहीं लगती है जब कोई ब्रेकअप हो जाता है, या बहुत बड़ी परीक्षा में असफल हो जाते हैं तो वे बहुत ही बड़ी बीमारी का शिकार होकर रह जाते हैं। मगर जैसे ही ठीक होते हैं दोबारा मोबाइल की लत में पड़ जाते हैं क्योंकि मोबाइल में शॉपिंग है, चैट है, गाने है, पढ़ाई है मगर एक ही मोबाइल पर देखते देखते उनकी हालत ख़राब हो जाती है। दिमाग भारी हो जाता है। दरअसल सच्चाई यह है कि माता-पिता ने पहली कक्षा तो क्या प्ले स्कूल से ही बच्चों को दस घंटे की पढ़ाई बच्चों की जान पर डाल दी है, और दूसरी ही कक्षा से उन्हें दो घंटे का टयूशन लगा दिया है, तो ये हो गये हैं दस घंटे। फिर वह तीन घंटे तक मोबाइल पर ही लगा रहता है, फिर दो घंटे टीवी देखता है, फिर दो घंटे तक होमवर्क करता रहता है। इन पंद्रह घंटों के बाद वह सो जाया करता है। सो, हमने ही बच्चों को बचपन से ही सज़ा देनी शुरू कर दी है, पढ़ाई बच्चों पर एक हौव्वा बनाकर उनके जीवन को नष्ट कर रही है। और अंत में बच्चा या बच्ची जब २५ साल के हो जाते हैं तो उनकी तनख्वाह पचास या एक लाख रुपया हो जाया करती है, तो फिर वे पैसे के माध्यम से कुछ न कुछ ख़रीदते ही चले जाया करते हैं और आज हरेक को पचास से लेकर एक लाख का ईएमआई हमेशा लगा ही रहता है। सो, इस तरह से भौतिक जीवन के गुलाम बनकर सारी दुनिया हो गयी है। आजकल बिरादरी में यही चल रहा है कि किसके पास प्ले स्टेशन है, किसके पास आई फ़ोन है, किसके पास बड़ी कार है, बस यही चल रहा है, कौन, कौनसी महँगी होटल में दावत दे रहा है, बस यही चल रहा है। हम आपको पहले का जीवन बताते हैं, पहले बच्चा छह घंटे तक का ही स्कूल किया करता था। टयूशन उसे नहीं भेजा जाता था, केवल दसवीं कक्षा के समय ही भेजा जाता था, तब तक वह एवरेज विद्यार्थी रहता तो भी कोई उससे कुछ नहीं कहते थे, आजकल तो रिश्तेदार पूछते हैं कि आप कौनसे रिहायशी स्कूल में हैं अगर हम कहें कि सरकारी स्कूल में है तो कहते हैं आपने तो बच्चे का जीवन ही बर्बाद कर दिया है। पहले क्या था कि पढ़ने में पैदल हो तो भी उसे निभा लिया जाता था। पहले के बच्चे खेलते बहुत थे, रोज़ाना कंचे खेलते थे, कंचे जून से लेकर अगस्त तक और मार्च से लेकर जून तक चलते थे। पतंग उडाया करते थे, पटाखे फोड़ा करते थे, पतंग पहले लोग पाँच महीने तक लगातार पिलाया करते थे। अगस्त से शुरू होकर जनवरी तक पतंग रोज़ाना उडायी जाती थी। पहले हर दो महीने में मामा, ताऊ के घर पर चार-चार दिन रहने जाया करते थे। गर्मी की छुट्टियों में तो बीस बीस दिन जाया करते थे। दूसरों के घर जाते हैं तो हम जिही नहीं होते हैं वहाँ पर जो दिया जाता है वो खा लेना पड़ता है, जैसा रखो रह जाना पड़ता है, इससे हम समाज का व्यवहार सीखा करते थे, आजकल हमारे बच्चे किसी के घर जाकर रहना पसंद ही नहीं करते हैं, और माता पिता को जिह पर जिद्द करके उन्हें दिन रात सताया करते हैं। पहले किसी से स्टेशन से लाना तो किसी को स्टेशन छोडकर आना उनका काम हुआ करता था। आजकल की पढ़ाई में प्रोजेक्ट वर्क, यूनिट टेस्ट लगातार चला करते हैं तो बच्चा दिन रात पढ़ाई में ही अटका रहता है। कई अमीर बच्चों के माता-पिता तो अपने बच्चों को दो घंटे के बस सफ़र वाले स्कूल में डाल देते हैं कि चलो उतनी देर तक तो बला हमारा पीछा छोड़ेगी। बच्चा जब इंजीनियरिंग में पढ़ता है तो नब्बे प्रतिशत बच्चे दूर का कॉलेज लेते हैं जहाँ आने-जाने में ही पाँच घंटे लग जाया करते हैं वे पाँच घंटे तक मोबाइल में ही व्यस्त रहते हैं। पता नहीं क्यों एक सज़ा जैसी ज़िंदगी जीने को बाध्य होते चले जा रहे हैं लोग। बाद में जब बच्चे सामाजिक न होकर तलाक ले लेते हैं तो भी माता पिता को उसकी चिंता नहीं रहती है क्योंकि उनको भी तब तक पता ही चल जाता है कि मेरी बेटी बहुत ही बददिमाग़ और ज़िही हो चुकी है, इस तरह उसका जीवन अधर में लटका पड़ा रहता है। असल में, माता पिता को भी बच्चों से प्यार बिल्कुल नहीं रह गया है। वे अंदर ही अंदर सोच रहे हैं कि पैदा किया है तो उनको पढ़ा लिखाकर बड़ा करना है आगे वो जाने हम तो अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर देते हैं। मगर ऐसा तो माता पिता की ग़लती से ही हो रहा है। क्योंकि वे खुद बच्चों को पढ़ाई के नरक में छोड़कर बच्चों को अपनों से ही दूर कर लेते हैं। अब तो माता पिता से बच्चों की दूरियाँ इतनी बढ़ गयी है, अगर पिता मर जाता है तब भी मोबाइल पर लगे होते हैं, कहते हैं हम अपने दोस्तों को मरने की ख़बर दे रहे हैं। फिर उनसे जो संदेश आते उसको पढ़ने में समय लगाते हैं उनसे संदेश आता है आरआईपी, यानी रेस्ट इन पीस, यानी भगवान उनकी आत्मा को शांति दे, वह भी शॉर्ट फार्म में। बस इतना लिखकर लोग जान छुडा लेते हैं। यानी बाप की मौत पर मोबाइल चलता ही रहता है। केवल मय्यत उठने वाली होती है तब जाकर उनसे मोबाइल छूटता है। बाप की मौत पर मुंड़न भी करा लो तो उसका भी अलग तरह का हेयर स्टाइल दस दिन के बाद निकालकर खुश हो जाते हैं कि चलो बाप ने नया हेयर स्टाइल दिया है। एक हिंदी की फिल्म आयी थी वेक अप सिड उसमें जब बेटे की माता ग़लती से बेटे के कमरे में घुस जाती है तो बेटा माता को ही डाँटने लग जाता है कि आप मेरे कमरे में बिना इजाज़त कैसे चली आयीं। आपको मुझसे पूछकर अंदर आना चाहिए। ठीक इसी तरह का जीवन चल रहा है, आजकल। पहले की नौकरी भी आठ घंटे से अधिक की नहीं हुआ करती थी। शाम छह बजते ही पेन पटककर लोग दफ्तर से निकल जाया करते थे। और बाक़ी का समय अपने परिवार के साथ बिताया करते थे। पहले माता गृहिणी हुआ करती थी, लेकिन अब तो माता भी कहीं न कहीं अपना सिर नौकरी में मारना चाहती है, क्योंकि उसका भी घर में दिल ही नहीं लग रहा है, कहीं न कहीं चगली करके जीवन जीना चाह रही है। इन सब का हल क्या है। लड़कों को नौकरी करनी होती है इसके लिए उन्हें सुबह आठ से रात सात तक के स्कूल में डालना चाहिए। लेकिन लड़कियों को केवल पाँच घंटे के स्कूल में ही डालना चाहिए। माता पिता को चाहिए कि एक लड़की के पैदा होते ही उसको उसका मकान लेकर देना चाहिए और ससुराल से कह देना चाहिए लड़की नौकरी नहीं करेगी, यह घर ही उसका आज घर की शांति पूरी तरह से लुप्त हो चुकी है, माता पिता से लेकर बहू बेटा सभी दुखी होकर जीवन गुजार रहे हैं। सबसे पहले हमें बच्चों को इस ऑरगेनाइज्ड सज़ा से बाहर निकालना चाहिए। तभी बच्चों को बीमारियों से बचाकर उनको अच्छा जीवन दिया जा सकता है। वरना बच्चों की मय्यत अपने कंधे पर कई पिता उठा चुके हैं। आप समझदार है जीवन को जल्दी से बदल

दीजिए।


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