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ग़ज़ल 357/32 : चिराग़-ए-इश्क़ मेरा

ग़ज़ल 357/32

1212---1122---1212---22-


चिराग़-ए-इश्क़ मेरा यूँ बुझा नहीं होता

नज़र से आप की जो मैं गिरा नहीं होता


क़लम न आप की बिकती, न सर झुकता

जमीर आप का जो गर बिका नहीं  होता


शरीफ़ लोग भी तुझको कहाँ नज़र आते

अना की क़ैद में जो तू रहा नहीं  होता ।


वहाँ के हूर की बातें ज़रूर सुनते हम

यहाँ अगर जो कोई बुतकदा नही होता ।


सफ़र तवील था, कटता भला कहाँ मुझसे

सफ़र की राह में जो मैकदा नहीं होता ।


मेरे गुनाह मुझे कब कहाँ से याद आते

जो आस्तान तुम्हारा दिखा नहीं होता ।


तुम्हारे बज़्म में ’आनन’ पहुँच गया होता

ख़याल-ए-ख़ाम में जो दिल फँसा नहीं होता


-आनन्द.पाठक- 

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