ग़ज़ल 356/31
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मिलता है बड़े शौक़ से वह हाथ बढ़ा कर
रखता है मगर दिल में वो ख़ंज़र भी छुपा कर
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तहज़ीब की अब बात सियासत में कहाँ हैं
लूटा किया है रोज़ नए ख़्वाब दिखा कर
यह शौक़ है या ख़ौफ़ कि आदात है उसकी
मिलता है कभी तो वह मुखौते ही चढ़ा कर
करने को करे बात वो ऊँची ही हमेशा
जब बात अमल की हो, करे बात घुमा कर
जिस बात का हो सर न कोई पैर ही प्यारे
उस बात को बेकार न हर बार खड़ा कर
यह कौन सा इन्साफ़, कहाँ की है शराफ़त
कलियों को मसलते हो ज़बर ज़ोर दिखा कर
"मासूम हूँ मजलूम हूँ लाचार हूँ ,साहिब !"
इस झूठ का हर बार न तू जाल बुना कर ।
’आनन’ करेगा और पे कितना तू भरोसा
धोखा ही मिला जब है तुझे दिल को लगा कर।
-आनन्द.पाठक-
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