ग़ज़ल 355/30
221---2122 // 221-2122
दिल का बयान करते ,ये आइने ग़ज़ल के
तारीख़ के हैं नाज़िर , हालात बीते कल के
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एहसास-ए-ज़िंदगी हूँ, जज़्बा भी हूँ, ग़ज़ल हूँ
हर दौर में हूँ निखरी, अहल-ए-ज़ुबाँ में ढल के
अन्दाज़-ए-गुफ़्तगू है नाज़-ओ-नियाज़ भी है
तहज़ीब ,सादगी है ,आदाब हैं ग़ज़ल के
आती समझ में उसको कब रोशनी की बातें
आना न चाहता वह ख़ुद सामने निकल के
सीने की आग से जो ये खूँ उबल रहा है
इन बाजुओं से रख दे दुनिया का रुख़ बदल के
हर बार ख़ुद ही जल कर देती सबूत शम्मा’
उलफ़त के हैं नताइज़ कहती पिघल पिघल के
जंग-ओ-जदल से कुछ भी हासिल न होगा’आनन’
पैग़ाम-ए-इश्क़ सबको मिलकर सुनाएँ चल के ।
-आनन्द.पाठक-
नताइज़ = नतीज़े
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