Get Even More Visitors To Your Blog, Upgrade To A Business Listing >>

ग़ज़ल 353[28] : ज़िंदगी का फ़लसफ़ा कुछ और है--



ग़ज़ल 353 [28]

2122---2122---212


ज़िंदगी का फ़लसफ़ा कुछ और है

आदमी का सोचना कुछ  और है ।


बात वाइज़ की सही अपनी जगह

दर हक़ीकत सामना कुछ और है ।


तुम भले ही जो कहो, हँस कर कहो

जर्द चेहरा कह रहा कुछ  और है।


क्यों नहीं दिखता तुम्हे चेहरे का सच

क्या तुम्हारा आइना कुछ और है ?


दिल कहे जब भी कहे तो सच कहे

लग रहा तुमने सुना कुछ और है ।


वस्ल के पहले ख़याल-ए-वस्ल हो

फिर तड़पने का मज़ा कुछ और है।


खेलता ’आनन"  तलातुम से सदा

उसकी मंज़िल हौसला कुछ और है।


-आनन्द.पाठक-

Share the post

ग़ज़ल 353[28] : ज़िंदगी का फ़लसफ़ा कुछ और है--

×

Subscribe to गीत ग़ज़ल औ गीतिका

Get updates delivered right to your inbox!

Thank you for your subscription

×