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ग़ज़ल 351[26] : न मिलते आप से जो हम ---

 ग़ज़ल 351[26]


1222---1222----1222---1222


न मिलते आप से जो हम तो दिल बहका नही होता

अगर हम होश में आते, तो यह अच्छा नहीं होता


तुम्हारे हुस्न के दीदार की होती तलब किसको,

तुम्हारे नूर पर इक राज़ का परदा नहीं होता ।


मुतासिर हो गया होता मैं वाइज की दलाइल से

अगर इस दरमियाँ इक मैकदा आया नहीं होता ।


कभी जब फ़ैसला करना, समझ कर, सोच कर करना

कि जज़्बे से किया हो फ़ैसला , अच्छा नहीं होता ।


अगर दिल साफ़ होता, सोच होता आरिफ़ाना तो 

तुम्हे फिर ढूँढने में मन मेरा भटका नहीं होता ।


नवाज़िश आप की हो तो समन्दर क्या. कि तूफ़ाँ क्या

करम हो आप का तो ख़ौफ़ का साया नहीं होता ।


दिखावे  में ही तूने काट दी यह ज़िंदगी ’आनन’

तू अपने आप की जानिब से क्यों सच्चा नहीं होता ।



-आनन्द.पाठक-




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