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ग़ज़ल 349[24] : चिराग़ों की हवाओं से---

ग़ज़ल 349 [24]


1222---1222---122


चिराग़ों की हवाओं से ठनी है

मगर कब रोशनी इनसे डरी है


अगर दिखती नहीं तुमको बहारें

तुम्हारी ही नज़र में कुछ कमी है


किसी के प्यार में ख़ुद को मिटा दे

भले ही चार दिन की ज़िंदगी है


जगाने को यहाँ रिश्ते हज़ारों

निभाने को मगर किसको पड़ी है


जगाएगा तो जग जाएगा इक दिन

तेरे अन्दर जो सोया आदमी है


नहीं कुछ और मुझको देखना है

मेरे दिल में तेरी सूरत बसी है


सभी में बस उसी का अक्स देखा

अजब ’आनन’ तेरी दीवानगी है ।


-आनन्द.पाठक-

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