Get Even More Visitors To Your Blog, Upgrade To A Business Listing >>

ग़ज़ल 347 [22]: हमारी बात क्या करना---


ग़ज़ल 347 [22]


1222---1222---1222---1222


हमारी बात क्या करना, हमारी छोड़िए साहिब !

मिला जो प्यार से हमसे. उसी के हो लिए साहिब !


पड़ी पाँवों में ज़जीरें, रवायत की जहालत की,

हमें बढने से जो रोकें उन्हें तो तोड़िए साहिब


हमेशा आप बातिल की तरफ़दारी में क्यों रहते

कभी तो सच की जानिब से ज़रा कुछ बोलिए साहिब


मुक़ाबिल आइना होते, पसीने क्यों छलक आते

हक़ीक़त तो हक़ीक़त है , न मुँह यूँ मोड़िए साहिब


वही सपने चुनावों  में थमा कर झुनझुने हमको

बजा कर झुनझुने अबतक, बहुत हम रो लिए साहिब!


शजर ज़िंदा रहेगा तो परिंदे चहचहाएँगे

हवाओं में ,फ़ज़ाओं में , न नफ़रत घोलिए साहिब


हमें मालूम है क्या आप की मजबूरियाँ ’आनन’

सितम पर आप क्यॊं चुप हैं ,ज़ुबाँ तो खोलिए साहिब !


-आनन्द.पाठक-


Share the post

ग़ज़ल 347 [22]: हमारी बात क्या करना---

×

Subscribe to गीत ग़ज़ल औ गीतिका

Get updates delivered right to your inbox!

Thank you for your subscription

×