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अनुभूतियाँ 127/14

 अनुभूतियां 127/14


:1:

स्मॄतियों के पंख लगा कर

उड़ते बादल नील गगन में

अनुभूति की बूँदे छन छन

बरसें मन के उजड़े वन में


:2:

बात बात पर ज़िद करती हो

व्यर्थ तुम्हें अब समझाना  है

लोग नहीं वैसे कि जैसे-

तुमने समझा या जाना है


:3:

रंज़ गिला शिकवा सब मुझसे

और तुम्हारी तंज बेरुखी

मेरी आँखों में सपनो-सा

बसी रही तुम लेकिन फिर भी


:4:

कोई तो  है जो छुप छुप कर

संकेतों से मुझे बुलाता

छुवन हवा सी जैसे लगती

लेकिन कोई नज़र न आता ।


-आनन्द.पाठक


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अनुभूतियाँ 127/14

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