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ग़ज़ल 345[20] : देखने में हों लगते भले--



ग़ज़ल 345[20]


212---212---212---212


देखने में लगते हों लगते भले

सोज़-ए-दिल से सभी हैं जले


एक धुन हो , लगन हो जिसे

क्या उसे पाँव के  आबले


रोशनी उसको भाती नहीं

जो अंधेरों में अब तक पले


देख कर आइना सामने

आप मुड़ कर किधर को चले


रंज किस बात का है तुझे

यार आ अब तो लग जा गले 


आदमी जो नहीं कर सका

वक़्त ने कर दिए फ़ैसले


जिस मकाँ में रहा उम्र भर

छोड़ कर आख़िरत को चले


तुमने देखा ही ’आनन’ कहाँ

इन चिराग़ों के पुर हौसले ।


-आनन्द.पाठक-


आख़िरत = परलोक

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