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ग़ज़ल 342 [17 ] : यार के कूचे में जाना कब मना है !


ग़ज़ल 342


2122---2122---2122


यार के कूचे में जाना कब मना है !

दर पे उसके सर झुकाना कब मना है !


मंज़िलें तो ख़ुद नहीं आएँगी  चल कर

रास्ता अपना बनाना कब मना है !


प्यास चातक की भला कब बुझ सकी है

तिशनगी लब पर सजाना कब मना है !


रोकती हों जो हवाओं रोशनी को-

उन दीवारों को गिराना कम मना है !


ज़िंदगी बोझिल, सफ़र भारी लगे तो

प्यार के नग्में सुनाना कब मना है !


ज़िंदगी है तो सदा ग़म साथ होंगे

पर ख़ुशी के गीत गाना कब मना है !


जो अभी हैं इश्क़ में नौ-मश्क ’आनन’

हौसला उनका बढ़ाना कब मना है !


-आनन्द.पाठक-


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