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ग़ज़ल 334 [09]: हो न जाए कही रायगां--

 ग़ज़ल 334 /09


212---212---212---212


हो न जाए कहीं रायगां रोशनी -

उससे पहले तू दिल से मिटा तीरगी


उसने पर्दा उठाया तो नूर-ए-सहर

और दिल में जगी एक पाकीज़गी


इक अक़ीदत रही आख़िरी साँस तक

शख़्सियत उसकी थी बस सुनी ही सुनी


ज़िंदगी में तो वैसे कमी कुछ नहीं

जब न तुम ही मिले तो कमी ही कमी


मैं शुरु भी करूँ तो कहाँ से करूँ

मुख़्तसर तो नही है ग़म-ए-ज़िंदगी


इन हवाओं की ख़ुशबू से ज़ाहिर यही

इस चमन से है गुज़री अभी इक परी


एक एहसास है एक विश्वास है

तुमने ’आनन’ की देखी नही आशिक़ी


-आनन्द पाठक-

शब्दार्थ

रायगां  = व्यर्थ

नूर--ए-सहर = सुबह का उजाला

पाकीजगी  = पवित्रता

अक़ीदत = श्रद्धा ,विश्वास

मुख़्तसर = संक्षिप्त

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