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ग़ज़ल 329[05] : तुम्हारे ही इशारों पर--

 ग़ज़ल 329 /05


1222---1222---1222---1222


तुम्हारे ही इशारों पर, बदलते हैं यहाँ मौसम

कभी दिल शाद हो जाता ,कभी होती हैं आँखें नम ।


ये ख़ुशियाँ चन्द रोज़ां की कब आती हैं चली जातीं

कभी क्या मुख़्तसर होती किसी की दास्तान-ए-ग़म


तरीक़ा आजमाने का तुम्हें लगता यही वाज़िब

सितम जितना भी तुम कर लो, नहीं होगी वफ़ा कुछ कम


अजब है ज़िंदगी मेरी, न जाने क्यॊ मुझे लगता

कभी  लगती है अपनॊ सी ,कभी हो जाती है बरहम


रहेगा सिलसिला क़ायम सवालों का, जवाबों का

नतीज़ा एक सा होगा , ये आलम हो कि वो आलम


जरूरत ही नही होगी हथेली में लिखा है क्या

अगर इन बाजुओं पर हो भरोसा जो अगर क़ायम


परेशां क्यों है तू ’आनन’, ज़माने से हैं क्यॊ डरता

ये दुनिया अपनी रौ में है तू  अपनी रौ मे चल हरदम



-आनन्द पाठक-



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