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गजल 318(83E) :फेंक कर जाल बैठे मछेरे यहाँ

 गजल 318(E)

212---212---212---212

फेंक कर जाल बैठे मछेरे यहाँ

बच के जाएँ तो जाएँ मछलियाँ कहाँ


एक रिश्ता तो है गायबाना सही

जब तलक है यह कायम जमी-आस्माँ


मैं जुबाँ से भले कह न पाऊँ तुम्हें

मेरे चेहरे से होता रहेगा बयाँ


प्यास दर्या की ही तो नहीं सिर्फ है

क्या समन्दर की होती नही है अयाँ


वस्ल की हो खुशी या जुदाई का गम

जिंदगी का चलेगा यूँ ही कारवाँ


सैकडो रास्ते यूँ तो मकसूद थे

इश्क का रास्ता ही रहा जाविदाँ


जानता है तू आनन नियति है यही

आज अँधेरा जहाँ कल उजाला वहाँ


-आनन्द पाठक-


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