ग़ज़ल 317/82
212---212---212---212
ख़त अधूरा लिखा उसका पूरा हुआ
आँसुओं से कभी जब वो गीला हुआ
पढ़्ने वाले ने पढ़ कर समझ भी लिया
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गो कि जुमला न कोई था लिख्खा हुआ
आप झूठी शहादत ही बेचा किए
यह तमाशा कई बार देखा हुआ
हर कली बाग़ की आज सहमी हुई
ख़ौफ़ का एक साया है फैला हुआ
कल जहाँ बज रही थी शहनाइयाँ
आज देखा वहीं खाक उड़ता हुआ
अब परिन्दे भी जाएँ तो जाएँ कहाँ
साँप हर पेड़ पर एक बैठा हुआ
तुम भी ’आनन’ हक़ीक़त से नाआशना
सब की अपनी गरज़ कौन किसका हुआ
-आनन्द.पाठक-
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