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ग़ज़ल 316[81 इ] : सच से उसका कोई वास्ता भी नहीं

 ग़ज़ल 316[81]


212---212---212---212


सच से उस का कोई वास्ता भी नहीं

क्या हक़ीक़त उसे जानना  भी नहीं


उँगलियाँ वह उठाता है सब की तरफ़

और अपनी तरफ़ देखता भी नहीं


रंग चेहरे क्यों उड़ गया आप का

इस तरफ़ तो कोई आइना भी नहीं


पीठ अपनी सदा थपथपाते रहे

क्या कहें आप को, कुछ हया भी नहीं


आप दाढ़ी मे क्या लग गए खोजने

मैने 'तिनका' अभी तो कहा भी नहीं


तुम जो कहते हो कुछ और करते हो कुछ

यह तरीक़ा तुम्हारा नया भी नहीं


राज-सत्ता भी ’आनन’ अजब चीज़ है

मिल गई , तो कोई छोड़ता भी नहीं


-आनन्द पाठक-

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