ग़ज़ल 313/78
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जब झूठ की ज़ुबान सभी बोलते रहे
सच जान कर भी आप वहाँ चुप खड़े रहे
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दिनरात मैकदा ही तुम्हारी नज़र में था
तसबीह हाथ में लिए क्यों फेरता रहे
इन्सानियत की बात किताबों में रह गई
अब लोग ख़ुदग़रज़ हुए हम देखते रहे
क्या दिल में उनके दर्द है तुमको नहीं पता
अपनी ज़मीन छोड़,जो जड़ से कटे रहे
कट्टर ईमानदार है ख़ुद की ज़ुबान से
लेकिन अमल में आप कहाँ कब टिके रहे
बस आप ही शरीफ़ हैं मजलूम हैं जनाब
मासूमियत ही आप सदा बेचते रहे
’आनन’ कहाँ खबर थी मनाज़िल पे थी नज़र
काँटे चुभे थे पाँव में या आबले रहे
-आनन्द.पाठक-
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