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ग़ज़ल 313[78] जब झूठ की ज़ुबान सभी बोलते रहे

 ग़ज़ल 313/78


221---2121---1221---212


जब झूठ की ज़ुबान   सभी बोलते रहे

सच जान कर भी आप वहाँ चुप खड़े रहे


दिनरात मैकदा ही तुम्हारी नज़र में था

तसबीह हाथ में लिए क्यों फेरता रहे


इन्सानियत की बात किताबों में रह गई

अब लोग ख़ुदग़रज़ हुए हम देखते रहे


क्या दिल में उनके दर्द है तुमको नहीं पता

अपनी ज़मीन छोड़,जो जड़ से कटे रहे


कट्टर ईमानदार है ख़ुद की ज़ुबान से

लेकिन अमल में आप कहाँ कब टिके रहे


बस आप ही शरीफ़ हैं मजलूम हैं जनाब

मासूमियत ही आप सदा बेचते रहे


’आनन’ कहाँ खबर थी मनाज़िल पे थी नज़र

काँटे चुभे थे पाँव में या आबले रहे


-आनन्द.पाठक-


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