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ग़ज़ल 312[77इ] : चिराग़-ए-इल्म जिसका हो --

 ग़ज़ल 312


1222---1222---1222---1222


चिराग़-ए-इल्म जिसका हो, सही रस्ता दिखाता है

जहाँ होता वहीं से ख़ुद पता अपना बताता  है


शजर आँगन में, जंगल में कि मन्दिर हो कि मसज़िद मे

जो तपता ख़ुद मगर औरों पे वो छाया लुटाता है


समन्दर है तो क़तरा है, न हो क़तरा समन्दर क्या

ये रिश्ता दिल हमेशा से निभाया है निभाता है


नज़र आती नहीं खुशबू ,मगर एहसास तो रहता

बहस मैं क्या करूँ इस पर नज़र आता , न आता है


हवेली माल-ओ-ज़र, इशरत जो जीवन भर जुटाते हैं

यही सब छोड़ कर जाते, कभी जब वह बुलाता है


इनायत हो अगर उसकी तो दर्या रास्ता दे दे

करम उनका भला इन्साँ कहाँ कब जान पाता है


जो संग-ए-आस्ताँ उनका हवा छूकर इधर आती

मुकद्दस मान कर ’आनन’ ये अपना सर झुकाता है


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

शजर = पेड़

माल-ओ-ज़र इशरत = धन संपत्ति, ऐश्वर्य वैभव

संग-ए-आस्ताँ  = चौखट

मुक़द्दस =पवित्र


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