ग़ज़ल 367
221---1222-// 221--1222
इज़हार-ए-मुहब्बत के आदाब हुआ करते,
अपनी तो सुनाते हो, मेरी भी सुना करते।
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कहने को कहो जो भी, होना था यही आख़िर,
हमने तो वफ़ा की थी, तुम भी तो वफ़ा करते ।
आसान नहीं होता जीवन का सफ़र ,जानम !
कुछ सख़्त मराहिल भी हस्ती में हुआ करते ।
मदमस्त जो होते हैं रोके से कहाँ रुकते
उनकी तो अलग दुनिया, मस्ती में जिया करते।
कब सूद, जियाँकारी होती है मुहब्बत में ,
उल्फ़त का तक़ाज़ा है, दिल खोल मिला करते।
होती है मुहब्बत की, तासीर कभी तारी
अग़्यार भी जाने क्यों, अपने ही लगा करते।
आग़ाज़-ए-मुहब्बत से ’आनन’ तू परीशां क्यों
होतें है फ़ना सब ही, जो इश्क़ किया करते ।
-आनन्द.पाठक-
मराहिल = पड़ाव
जियाँकारी = कदाचार ,बुरे आचरण/विचार
अग़्यार = ग़ैर लोग, अनजान लोग
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