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ग़ज़ल 365 : अच्छा हुआ कि आप जो



ग़ज़ल 365

221---2121---1221---212


अच्छा हुआ कि आप जो आए नहीं इधर

कुछ लोग हाथ मे लिए पत्थर , मचान पर।


श्रद्धा के नाम पर  खड़ी अंधों की भीड़ है

जाने किधर को ले के चलेगा यह राहबर ।


मिलता है दौड़ कर जो गले से, तपाक से

मिलिए उस आदमी से तो दामन सँभाल कर।


वैसे तुम्हारे शहर का हमको नहीं पता ,

लेकिन हमारे शहर का माहौल पुरख़तर !


आँखों में ख़ास रंग का चश्मा चढ़ा हुआ ,

देखा न उसने सच कभी , चश्मा उतार कर।


हालात शादमान कि नाशादमान हो,

जीना यहीं है छोड़ के जाना है अब किधर ।


’ आनन’ तुम्हारी ज़ात तो ऐसी कभी न थी

कुछ माल-ओ-ज़र बना लिए दस्तार बेच कर ।


-आनन्द पाठक-


शादमान, नाशादमान = सुख-दुख , हर्ष विषाद

माल-ओ- ज़र = धन दौलत

दस्तार = पगड़ी ,इज्जत





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