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दैनिक जीवन मे योग के सकारात्मक प्रभाव


    योग शब्द संस्कृत धातु 'युज' से निकला है, जिसका मतलब है व्यक्तिगत चेतना या आत्मा का सार्वभौमिक चेतना या रूह से मिलन। । हालांकि कई लोग योग को केवल शारीरिक व्यायाम ही मानते हैं, जहाँ लोग शरीर को मोडते, मरोड़ते, खिंचते हैं और श्वास लेने के जटिल तरीके अपनाते हैं। यह वास्तव में केवल मनुष्य के मन और आत्मा की अनंत क्षमता का खुलासा करने वाले इस गहन विज्ञान के सबसे सतही पहलू हैं। योग विज्ञान में जीवन शैली का पूर्ण सार आत्मसात किया गया है|
योग का इतिहास
   योग दस हजार साल से भी अधिक समय से प्रचलन में है। मननशील परंपरा का सबसे तरौताजा उल्लेख, नासदीय सूक्त में, सबसे पुराने जीवन्त साहित्य ऋग्वेद में पाया जाता है। यह हमें फिर से सिन्धु-सरस्वती सभ्यता के दर्शन कराता है। ठीक उसी सभ्यता से, पशुपति मुहर (सिक्का) जिस पर योग मुद्रा में विराजमान एक आकृति है, जो वह उस प्राचीन काल में योग की व्यापकता को दर्शाती है। हालांकि, प्राचीनतम उपनिषद, बृहदअरण्यक में भी, योग का हिस्सा बन चुके, विभिन्न शारीरिक अभ्यासों का उल्लेख मिलता है। छांदोग्य उपनिषद में प्रत्याहार का तो बृहदअरण्यक के एक स्तवन (वेद मंत्र) में प्राणायाम के अभ्यास का उल्लेख मिलता है। यथावत, ”योग” के वर्तमान स्वरूप के बारे में, पहली बार उल्लेख शायद कठोपनिषद में आता है, यह यजुर्वेद की कथाशाखा के अंतिम आठ वर्गों में पहली बार शामिल होता है जोकि एक मुख्य और महत्वपूर्ण उपनिषद है। योग को यहाँ भीतर (अन्तर्मन) की यात्रा या चेतना को विकसित करने की एक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है।
   प्रसिद्ध संवाद, “योग याज्ञवल्क्य” में, जोकि (बृहदअरण्यक उपनिषद में वर्णित है), जिसमें बाबा याज्ञवल्क्य और शिष्य ब्रह्मवादी गार्गी के बीच कई साँस लेने सम्बन्धी व्यायाम, शरीर की सफाई के लिए आसन और ध्यान का उल्लेख है। गार्गी द्वारा छांदोग्य उपनिषद में भी योगासन के बारे में बात की गई है।
   अथर्ववेद में उल्लेखित संन्यासियों के एक समूह, वार्ता (सभा) द्वारा, शारीरिक आसन जोकि योगासन के रूप में विकसित हो सकता है पर बल दिया गया है| यहाँ तक कि संहिताओं में उल्लेखित है कि प्राचीन काल में मुनियों, महात्माओं, वार्ताओं(सभाओं) और विभिन्न साधु और संतों द्वारा कठोर शारीरिक आचरण, ध्यान व तपस्या का अभ्यास किया जाता था।
   योग धीरे-धीरे एक अवधारणा के रूप में उभरा है और भगवद गीता के साथ साथ, महाभारत के शांतिपर्व में भी योग का एक विस्तृत उल्लेख मिलता है।
   बीस से भी अधिक उपनिषद और योग वशिष्ठ उपलब्ध हैं, जिनमें महाभारत और भगवद गीता से भी पहले से ही, योग के बारे में, सर्वोच्च चेतना के साथ मन का मिलन होना कहा गया है।
हिंदू दर्शन के प्राचीन मूलभूत सूत्र के रूप में योग की चर्चा की गई है और शायद सबसे अलंकृत पतंजलि योगसूत्र में इसका उल्लेख किया गया है। अपने दूसरे सूत्र में पतंजलि, योग को कुछ इस रूप में परिभाषित करते हैं:
" योग: चित्त-वृत्ति निरोध: "- योग सूत्र 1.2
पतंजलि का लेखन भी अष्टांग योग के लिए आधार बन गया। जैन धर्म की पांच प्रतिज्ञा और बौद्ध धर्म के योगाचार की जडें पतंजलि योगसूत्र मे निहित हैं।
मध्यकालीन युग में हठ योग का विकास हुआ।
योग के ग्रंथ: पतंजलि योग सूत्र |
पतंजलि को योग के पिता के रूप में माना जाता है और उनके योग सूत्र पूरी तरह योग के ज्ञान के लिए समर्पित रहे हैं।
   प्राचीन शास्त्र पतंजलि योग सूत्र, पर गुरुदेव के अनन्य प्रवचन, आपको योग के ज्ञान से प्रकाशमान (लाभान्वित) करते हैं, तथा योग की उत्पति और उद्देश्य के बारे में बताते हैं। योग सूत्र की इस व्याख्या का लक्ष्य योग के सिद्धांत बनाना और योग सूत्र के अभ्यास को और अधिक समझने योग्य व आसान बनाना है। इनमें ध्यान केंद्रित करने के प्रयास की पेशकश की गई है कि क्या एक ‘योग जीवन शैली’ का उपयोग योग के अंतिम लाभों का अनुभव करने के लिए किया जा सकता है|
चेतना एवं आत्मा का विज्ञान
   हर मानव की इच्छा स्वयं से और पर्यावरण से समरस होकर जीवित रहने की है। तथापि आधुनिक युग में अधिक शारीरिक और भावात्मक इच्छायें लगातार जीवन के अनेक क्षेत्रों पर भारी हो रही हैं। परिणामत: अधिकाधिक व्यक्ति खिंचाव, चिंता, अनिद्रा जैसे शारीरिक और मानसिक तनावों से पीडि़त रहते हैं और शारीरिक सक्रियता और उचित व्यायाम में एक असंतुलन बन गया है। यही कारण है कि स्वस्थ बने रहने और उसमें सुधार के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक समरसता बनाए रखने के लिए नई नई विधियों और तकनीकों का महत्व बढ़ गया है




"योग" शब्द का उद् गम संस्कृत भाषा से है और इसका अर्थ "जोडऩा, एकत्र करना" है। योगिक व्यायामों का एक पवित्र प्रभाव होता है और यह शरीर, मन, चेतना और आत्मा को संतुलित करता है। योग हमें दैनन्दिन की माँगों, समस्याओं और परेशानियों का मुकाबला करने में सहायक होता है। योग स्वयं के बारे में समझ, जीवन का प्रयोजन और ईश्वर से हमारे संबंध की जानकारी विकसित करने के लिए सहायता करता है। आध्यात्मिक पथ पर योग हमको ब्रह्माण्ड के स्व के साथ वैयक्तिक स्व के शाश्वत परमानंद मिलन और सर्वोच्च ज्ञान को प्रशस्त करता है। योग सर्वोच्च ब्रह्मांडमय सिद्धान्त है। यह जीवन का प्रकाश, विश्व की सृजनात्मक चेतना है जो सदैव सजग रहती है और कभी सोती नहीं; जो हमेशा थी, हमेशा है और हमेशा होगी-रहेगी।

    हजारों वर्ष पहले भारत में ऋषियों (बुद्धिजीवियों और संतों) ने अपनी ध्यानावस्था में प्रकृति और ब्रह्माण्ड की खोज की थी। उन्होंने भौतिक और आध्यात्मिक शासनों के कानूनों का पता किया था और विश्व में संबंधों की अंतर्दृष्टि प्राप्त की थी। उन्होंने ब्रह्माण्ड के नियमों, प्रकृति के नियम और तत्त्वों, धरती पर जीवन और ब्रह्माण्ड में कार्यरत शक्तियों और ऊर्जाओं-बाह्य संसार और आध्यात्मिक स्तर दोनों पर ही, जांच की थी। पदार्थ और ऊर्जा की एकता, ब्रह्माण्ड का उद् गम और प्राथमिक शक्तियों के प्रभावों का वर्णन और स्पष्टीकरण वेदों में किया गया है। इस ज्ञान का पर्याप्त अंश पुन: खोजा गया और आधुनिक विज्ञान द्वारा उसकी पुष्टि-सत्य अनुभूति की गई है।
    व्यायाम स्तरों का निर्धारण चिकित्सकों से परामर्श के बाद किए गये हैं और इस प्रकार-कथित नियमों और सावधानियों के पर्यवेक्षण के साथ-किसी भी व्यक्ति द्वारा घर पर स्वतंत्र रूप से अभ्यास किया जा सकता है। दैनिक जीवन में योग एक पुण्यप्रदा देने वाली प्रणाली है जिसका अर्थ है कि इसमें न केवल शारीरिक, अपितु मानसिक और आध्यात्मिक पक्षों पर भी विचार किया जा सकता है। सार्थक-सकारात्मक विचार, दृढ़ता, अनुशासन, सर्वोच्च के प्रति अभिविन्यास, प्रार्थना के साथ-साथ दयालुता और समझ, आत्मज्ञान और आत्मानुभूति का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
दैनिक जीवन में योग के मुख्य लक्ष्य हैं:
शारीरिक स्वास्थ्य
मानसिक स्वास्थ्य
सामाजिक स्वास्थ्य
आध्यात्मिक स्वास्थ्य
आत्मानुभूति या हमारे अपने अंदर दिव्यात्मा की अनुभूति
इन लक्ष्यों की प्राप्ति निम्नलिखित द्वारा होती है:
सभी जीवधारियों के प्रति प्रेम और सहायता-भाव
जीवन के प्रति सम्मान और प्रकृति व पर्यावरण का संरक्षण
मानसिक शांति
पूर्ण शाकाहारी भोजन
शुद्ध विचार और सार्थक, सकारात्मक जीवन शैली
शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक अभ्यास
सभी राष्ट्रों, संस्कृतियों और धर्मों के प्रति सहानुभूति, सहनशीलता



शारीरिक स्वास्थ्य

शरीरिक स्वास्थ्य का जीवन में आधारभूत मूल महत्व है। जैसा कि स्विट्जरलैण्ड में जन्मे चिकित्सक, पैरासैलसस ने बहुत ठीक कहा है: "स्वास्थ्य ही सब कुछ नहीं है, किन्तु स्वास्थ्य के बिना सब कुछ शून्य है। "स्वास्थ्य को बनाने और उसको संजोये रखने के लिए शारीरिक व्यायाम, आसन, श्वास व्यायाम (प्राणायाम और तनावहीनता, विश्राम, शिथिलता, आदि) तकनीकें हैं।
   अच्छे स्वास्थ्य के संरक्षण के लिए एक और बड़ा कारक है- वह भोजन जो हम करते हैं। जो कुछ हम खाते हैं वह हमारे शरीर और मन, हमारे स्वभाव और गुण दोनों को ही प्रभावित करता है। संक्षेप में हम जो खाते हैं उसका प्रभाव हमारे अपने अस्तित्व पर होता है। भोजन हमारी शारीरिक ऊर्जा और जीवन शक्ति, हमारे अस्तित्व का स्रोत है। संतुलित और स्वास्थ्यप्रद भोजन में सम्मिलित हैं- अनाज, सब्जियाँ, दालें, फल, मेवे, दूध और दुग्ध पदार्थ साथ ही मधु, अंकुर, सलाद बीज, जड़ी बूटियाँ, मसाले, मूल रूप में या तुरंत तले पकाए हों। जिन भोजनों को परित्याग करना है वे हैं पुरानी बासी, पुन: गरम किये हुए, प्रकृति परिवर्तित खाद्य, मांस, सभी मांस उत्पाद और मछली और अंडे हैं। शराब, निकोटिन और मादक पदार्थों से बचना भी सर्वोत्तम है क्योंकि ये भी हमारे स्वास्थ्य को शीघ्र नष्ट कर देते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य
सामान्यत, हम मन और इंद्रियों को नियंत्रण में रखने की अपेक्षा इनसे ही जीवन में चलते हैं। तथापि, मन पर नियंत्रण करने के लिए हमें इसे आंतरिक विश्लेषण के अधीन लाना चाहिए और इसको शुद्ध करना चाहिए। नकारात्मक विचार और आशंकाएँ हमारे नाड़ी तंत्र में और उसके द्वारा शारीरिक कार्य में एक असंतुलन पैदा करते हैं। यह बहुत सारी बीमारियों और दु:ख का कारण है। विचार की स्पष्टता, आंतरिक स्वतंत्रता, संतोष और एक स्वस्थ आत्मविश्वास, मानसिक कल्याण का आधार है। यही कारण है हम क्रमिक रूप से अपने नकारात्मक गुणों और विचारों का हल करने का यत्न करते हैं और सकारात्मक विचारों और व्यवहारों को विकसित करने का लक्ष्य अपने सम्मुख रखते हैं और तद् नुसार कार्य करते हैं।



सामाजिक स्वास्थ्य

सामाजिक स्वास्थ्य, स्वयं अपने अंदर ही खुश होने की और अन्य लोगों की खुशी बनाने, रखने की योग्यता है। इसका अर्थ है अन्य लोगों के साथ वास्तविक संपर्क व समाज में उत्तरदायित्व ग्रहण करना और समाज के हित के लिए कार्य करना। सामाजिक स्वास्थ्य का अर्थ जीवन को इसके संपूर्ण सौंदर्य में अनुभव करना और तनावहीनता में बिताना है।
   हमारे युग की बढ़ती हुई समस्याओं में मादक, नशीले पदार्थों का सेवन है। यह सामाजिक बीमारी का एक साफ लक्षण है। दैनिक जीवन में योग की प्रणाली इस रोग का शमन या निरोध करने में सहायक हो सकती है और जनता को एक नया, सार्थक उद्देश्य और जीवन में प्रयोजन प्रदान कर सकती है। एक अच्छे, सकारात्मक सत्संग का हमारे मानस पर महान् सत् प्रभाव पड़ता है। क्योंकि ऐसा साहचर्य हमारा व्यक्तित्व और चरित्र को ढालता है और निरूपित करता है। सत्संग आध्यात्मिक विकास में अति महत्व रखता है।
    दैनिक जीवन में योग का जीवन बिताने का अर्थ अपने स्वयं के लिए और लोगों के लिए कार्य करना है। इसका अर्थ अपने पड़ोसियों के लिए और समाज के लिए मूल्यवान और रचनात्मक कार्य करना, प्रकृति और पर्यावरण को बनाए रखना और विश्व में शांति के लिए कार्य करना है। योग का अभ्यास करने का अर्थ सार्थक सकारात्मक भावना में रहना और सभी मानव जाति के कल्याण के लिए कार्य करने में सक्रिय रहना है।
आध्यात्मिक स्वास्थ्य
आध्यात्मिक जीवन का मुख्य सिद्धांत और मानव जाति का नीति वचन, नियम है:
अहिंसा- परमोधर्म
किसी की हिंसा न करना प्रमुख सिद्धान्त है।
इस नीति वचन का, अहिंसा का सिद्धान्त, विचार, शब्द भावना और कार्य में सन्निहित है। प्रार्थना, ध्यान, मंत्र, सकारात्मक विचार और सहनशीलता आध्यात्मिक स्वास्थ्य उपलब्ध कराते हैं।
मानव को संरक्षक होना चाहिए, विध्वंसक, नाशक नहीं। जिन गुणों से हम वास्तव में मानव बनते हैं वे देने, समझने, और क्षमा करने की योग्यताएं हैं। जीवन के हर रूपों की वैयक्तिकता-पृथकता और स्वाधीनता का जीवन संरक्षण और सम्मान, योग शिक्षाओं का प्रथम अभ्यास है। इस नीति वचन का अनुसरण करने से अत्यधिक सहनशीलता, समझ, पारस्परिक प्रेम, सहायता और दयाभाव विकसित होते हैं - न केवल कुछ व्यक्तियों में, अपितु सभी मानवों, राष्ट्रों, जातियों और धार्मिक विश्वासों, मत-मतांतरों के मध्य भी।
"दैनिक जीवन में योग" का मूल सिद्धान्त स्वतंत्रता है। योग एक धर्म नहीं है- यह आध्यात्मिकता और बुद्धिमत्ता का स्रोत, सभी धर्मों की जड़ है। योग धार्मिक सीमाओं के बंधनों को दूर करता है और एकता का मार्ग दिखाता है।
 धरती पर सर्वाधिक उच्च विकसित जीवनधारी होने के नाते मानव अपनी वास्तविक प्रकृति और आंतरिक स्व- ईश्वर की अनुभूति करने में सक्षम है। योग का आध्यात्मिक लक्ष्य ईश्वर अनुभूति, वैयिक्तकता एवं आत्मा का ईश्वर से मिलन है। यह अनुभूति कि सब अपने मूल रूप में एक ही है और ईश्वर से संबंध रखते हैं, पहला कदम है।
कुछ महत्वपूर्ण योग मुद्राएँ-




















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