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भारतीय शासकों के शिरमौर राजा विक्रमादित्य का दरवार नौ रत्नों (पत्थर नही अपितु महामानवों ) से दमकता था और जिनकी नकल कभी अकबर ने करके अपने दरवार में भी नौ रत्नों को सुशोभित किया।


महाभारत युद्ध के बाद महाराज परीक्षित व जनमेयजय के अतिरिक्त अगर कोई शासक सर्वाधिक विख्यात है तो वह है महान राजा विक्रमादित्य। वे इतने महान थे कि इनके बाद अनेकों राजाओं ने अपने नाम के पीछे विक्रमादित्य की उपाधि धारण की और तो और कई राजाओं ने अपने पुत्रों का नाम भी इनके ही नाम पर कर दिया। जिसके कारण इतिहास में अनेकों विक्रमादित्य नाम के शासक दिखाई देते हैं और कई शासक तो वास्तव में बहुत ही महान हुये जिनकी उपाधि विक्रमादित्य की थी जैसे भारतीय इतिहास का नेपोलियन कहे जाने वाले महाराज समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य। लैकिन आज हम वीर विक्रमादित्य की बात कर रहे हैं जो उज्जैन के राजा थे क्योंकि इन्हौने भारत को विजित करने वाली एक जाति शकों का भारत से पूर्णतया अंत करके भारत को अनेकों वर्षों तक निष्कंटक कर दिया था। यह शक नाम की विरादरी अत्यंत ही राक्षसी प्रवृति की थी और इसने भारत पर लगभग 300 वर्षों तक शासन किया और तो और इस जाति के ज्यादातर लोगों ने भारतीय भगवान शिव को मानने वाले एक मत शैव को धारण करके भारत में अनेकों मंदिरो का निर्माण भी कराया था और वे क्षद्म रूप से भारतीय के रुप में ही भारतीय लोगों के साथ घुलमिल कर भारतीय राज्य का उपभोग करने लगे थे चहुं दिशा में उन्हीं के राज्य दिखाई देने लगे थे एसे समय में राजा विक्रमादित्य ने उन शकों का समूल नाश करने का वीड़ा उठाया और भारतीय समाज से उन्हैं अलग थलग कर उनको भारत से उखाड़ फैंका जो किसी चमत्कार से कम नही था। ये महान सम्राट जिनका नाम विक्रमादित्य था भारतीय समाज में इस प्रकार प्रतिष्ठित हैं कि लोक लीलाओं और कथाओं में इनका नाम आता है या तो भारत में राम राज्य सर्वाधिक प्रचलित है दूसरा सर्वाधिक प्रचलित राज अगर है तो वह है राजा विक्रमादित्य का राज्य उन्हौने राज्य की भलाई के लिए अपना कभी ख्याल ही नही किया हर समय समाज की भलाई में ही कार्य किया। आइये इनके बारे में जानते हैं इनका इतिहास ।

उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य  एक  चक्रवर्ती सम्राट थे। इनका (विक्रमादित्य) वास्तविक नाम विक्रम सेन था। विक्रम और वेताल तथा सिंहासन बत्तीसी नामक कहानियां महान सम्राट विक्रमादित्य से ही जुड़ी हुई कहानियाँ  है।

महान सम्राट विक्रमादित्य का परिचय :


 विक्रम संवत के आधार पर महान सम्राट विक्रमादित्य आज से 2288 वर्ष पूर्व हुए थे। ये नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन  के पुत्र थे और गंधर्वसेन  भी चक्रवर्ती सम्राट थे।
( राजा गंधर्व सेन का एक मंदिर मध्यप्रदेश के सोनकच्छ के आगे गंधर्वपुरी में बना हुआ है। यह गांव बहुत ही रहस्यमयी गांव है। उनके पिता को महेंद्रादित्य भी कहते थे। उनके और भी नाम थे जैसे गर्द भिल्ल, गदर्भवेष।)
गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। विक्रमसेन की माता का नाम सौम्यदर्शना था इन्हें वीरमती और मदनरेखा के नाम से भी जाना जाता था। विक्रमसेन की एक बहन थी जिसे मैनावती कहते थे। उनके  भर्तृहरि के अलावा शंख और अन्य भाई भी थे।
इनकी पांच पत्नियां मलयावती, मदनलेखा, पद्मिनी, चेल्ल और चिल्लमहादेवी थी। इनके दो पुत्र थे  विक्रमचरित और विनयपाल और दो ही पुत्रियां थीं  प्रियंगु मंजरी (विद्योत्तमा) और वसुंधरा। गोपीचंद नाम का उनका एक भानजा था। विक्रमसेन या विक्रमादित्य के  प्रमुख मित्रों में भट्टमात्र का नाम आता है। इनके राज पुरोहित त्रिविक्रम और वसुमित्र थे। मंत्री भट्टि और बहसिंधु थे।सम्राट विक्रमादित्य के सेनापति विक्रमशक्ति और चंद्र थे।
सम्राट विक्रमादित्य का जन्म कलि काल के 3000 वर्ष बीत जाने पर  ईसा से 101 वर्ष पूर्व  हुआ था । उन्होंने 100 वर्ष तक राज किया। सन्दर्भ -(गीता प्रेस, गोरखपुर भविष्यपुराण, पृष्ठ 245)।
                         सम्राट  विक्रमादित्य  अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे इनके दरबार नौ विद्वानों विरजमान रहते थे जिन्हेैं  नवरत्न रहते थे। विक्रमादित्य महान पराक्रमी शासक थे जिन्होंने महाशक्तिशाली शकों को परास्त किया था।
लोक कथाओं व इतिहास के अनुसार सम्राट विक्रमादित्य अपने राज्य की जनता के कष्टों और उनके हालचाल जानने के लिए छद्मवेष धारण कर नगर भ्रमण करते थे। जिससे कि न्याय व्यवस्था वरकरार रहे इन्हौंने न्याय व्यवस्था को इतना सुदृढ़ कर रखा था कि आज तक लोग इनका प्रमाण देते देखे जाते हैं। इतिहास में वे सबसे लोकप्रिय और न्यायप्रिय राजाओं में से प्रमुख नरेश के रुप में प्रतिष्ठित हैं।
                           कहा जाता है कि मालवा में विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि का शासन था। भर्तृहरि के शासन काल में मालवा में शको का आक्रमण बढ़ गया था।सम्राट भर्तृहरि ने एसे में  वैराग्य धारण कर जब राज्य त्याग दिया तो महान राजा विक्रमादित्य ने मालवा का शासन संभाला और ईसा पूर्व 57-58 में शको को अपने शासन क्षेत्र से बहार खदेड़ दिया। और समाज व्यवस्था को मजबूत किया,  इसी की याद में उन्होंने विक्रम संवत की शुरुआत कर अपने राज्य के विस्तार का आरंभ किया। विक्रमादित्य ने भारत की भूमि को विदेशी शासकों से मुक्ति कराने के लिए एक वृहत्तर अभियान चलाया। उन्होंने अपनी सेना को पुनः संगठित किया। जिससे उनकी सेना विश्व की सबसे शक्तिशाली सेना बन गई ,इसके बाद इन्हौने  भारत की सभी दिशाओं में एक अभियान चलाकर भारत को विदेशियों और अत्याचारी राजाओं से मुक्ति कर एक छत्र शासन को कायम किया।

 महाराज विक्रमादित्य एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व : 


कल्हण की 'राजतरंगिणी' के अनुसार 14 ई. के आसपास कश्मीर में अंध्र युधिष्ठिर वंश के राजा हिरण्य के नि:संतान मर जाने पर अराजकता फैल गई थी। जिसको देखकर वहां के मंत्रियों की सलाह से उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने मातृगुप्त को कश्मीर का राज्य संभालने के लिए भेजा था। नेपाली राजवंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय (ईसापूर्व पहली शताब्दी) में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख मिलता है।
राजा विक्रम का भारत की संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है। उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।

विक्रमादित्य के नवरत्न ः मध्यप्रदेश में स्थित उज्जैन-महानगर के महाकाल मन्दिर के पास विक्रमादित्य टीला है। वहाँ विक्रमादित्य के संग्रहालय में नवरत्नों की मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं।

विक्रमादित्य के दरबार के नौ रत्नों के चित्र -----







भारतीय परंपरा के अनुसार धन्वन्तरि, क्षपनक, अमरसिंह, शंकु, खटकरपारा, कालिदास, वेतालभट्ट (या (बेतालभट्ट), वररुचि और वराहमिहिर उज्जैन में विक्रमादित्य के राज दरबार का अंग थे। कहते हैं कि राजा के पास "नवरत्न" कहलाने वाले नौ ऐसे विद्वान थे।

कालिदास प्रसिद्ध संस्कृत राजकवि थे। वराहमिहिर उस युग के प्रमुख ज्योतिषी थे, जिन्होंने विक्रमादित्य की बेटे की मौत की भविष्यवाणी की थी। वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे। माना जाता है कि उन्होंने विक्रमादित्य को सोलह छंदों की रचना "नीति-प्रदीप" ("आचरण का दीपक) का श्रेय दिया है।
विक्रमार्कस्य आस्थाने नवरत्नानिधन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिंहः शंकूवेताळभट्टघटकर्परकालिदासाः।ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेस्सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥




विक्रम संवत के प्रवर्तक : देश में अनेक विद्वान ऐसे हुए हैं, जो विक्रम संवत को उज्जैन के राजा विक्रमादित्य द्वारा ही प्रवर्तित मानते हैं। इस संवत के प्रवर्तन की पुष्टि ज्योतिर्विदाभरण ग्रंथ से होती है, जो कि 3068 कलि अर्थात 34 ईसा पूर्व में लिखा गया था। इसके अनुसार विक्रमादित्य ने 3044 कलि अर्थात 57 ईसा पूर्व विक्रम संवत चलाया।
अरब तक फैला था विक्रमादित्य का शासन :
महाराजा विक्रमादित्य का सविस्तार वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है। उस वक्त उनका शासन अरब तक फैला था। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे।
इतिहासकारों के अनुसार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान, इराक और अरब में भी था। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि "जरहाम किनतोई" ने अपनी पुस्तक 'सायर-उल-ओकुल' में किया है। पुराणों और अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार यह पता चलता है कि अरब और मिस्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे।
तुर्की के इस्ताम्बुल शहर की प्रसिद्ध लायब्रेरी "मकतब-ए-सुल्तानिया" में एक ऐतिहासिक ग्रंथ है 'सायर-उल-ओकुल'। उसमें राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि '…वे लोग भाग्यशाली हैं, जो उस समय जन्मे और राजा विक्रम के राज्य में जीवन व्यतीत किया। वह बहुत ही दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था, जो हरेक व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचता था। ...उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फैलाया, अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फैल सके। इन विद्वानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये तमाम विद्वान राजा विक्रमादित्य के निर्देश पर अपने धर्म की शिक्षा देने यहां आए…।'
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अन्य सम्राट जिनके नाम के आगे विक्रमादित्य लगा है:-
जैसे  श्रीहर्ष, श


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भारतीय शासकों के शिरमौर राजा विक्रमादित्य का दरवार नौ रत्नों (पत्थर नही अपितु महामानवों ) से दमकता था और जिनकी नकल कभी अकबर ने करके अपने दरवार में भी नौ रत्नों को सुशोभित किया।

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