लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी हमेशा लोकतंत्र के पक्षधर रहे। अंतिम सांस लेने तक वे दो साल से बीमारी से जूझ रहे थे। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस सरकार के दौरान लोकतंत्र पर हुए आघात को लेकर उन्होंने अपनी बीमारी की हालत में भी बार-बार चिंता जताई थी। पश्चिम बंगाल में कुछ समय पहले हुए पंचायत चुनावों में विरोधी दलों के उम्मीदवारों को नामांकन न करने की ममता बनर्जी सरकार की कारगुजारी पर सोमनाथ चटर्जी ने कहा था कि राज्य में कोई लोकतंत्र नहीं रह गया है और राज्य उस स्थिति की तरफ बढ़ रहा है, जहां संविधान के अनुच्छेद 356 को लागू करने की मांग की जा सकती है। यह अवश्विसनीय है। यहां तक कि लोगों को उनके न्यूनतम अधिकारों से भी जबरन वंचित किया जा रहा है। यहां लोकतंत्र नाममात्र भी नहीं बचा है। यह न केवल खेदजनक है, बल्कि गहरी चिंता का विषय है। तृणमूल कांग्रेस के सदस्यों की गुंडागर्दी, ममता सरकार के प्रशासनिक और पुलिस के अधिकारियों की विवशता और राज्य चुनाव आयोग की मनमानी को लेकर दुखी हुए सोमनाथ दा ने तो राज्य चुनाव आयुक्त को तीन बार हटाने की मांग भी कर दी थी। पश्चिम बंगाल की हालत पर यह उनकी अंतिम टिप्पणी थी कि जिस तरह पंचायत चुनाव कराया जा रहा है उससे लगता है कि बच्चों का खेल हो रहा है। सरकार जो बोल रही है राज्य चुनाव आयोग वही सब कर रहा है। उनका कहना था कि राज्य चुनाव आयुक्त को चुनाव में सुरक्षा इंतजामों की जानकारी भी नहीं है। उनका कहना था कि राज्य चुनाव आयुक्त मजबूर हैं तो उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए।
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दस बार लोकसभा के सदस्य रहे सोमनाथ चटर्जी 2004 से 2009 तक लोकसभा के अध्यक्ष रहे। 1996 में सर्वश्रेष्ठ सांसद का खिताब पाने वाले सोमनाथ चटर्जी अपनी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के रवैये से भी नाखुश थे। 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते का कम्युनिस्टों ने विरोध किया था। सर्वसम्मति से लोकसभा के अध्यक्ष चुने गए सोमनाथ चटर्जी को माकपा की तरफ से इस्तीफा देने के लिए विवश किया गया था। 2004 में भारतीय जनता पार्टी की तरफ से लोकसभा अध्यक्ष के लिए उनका नामांकन किया गया था। लोकसभा अध्यक्ष बनाने के दूसरे प्रस्ताव का पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने समर्थन किया था। 2008 में कम्युनिस्टों के मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए-एक सरकार से समर्थन लेने के बाद 22 जुलाई 2008 को विश्वास मत के दौरान किए गए लोकसभा के संचालन के लिए बहुत तारीफ हुई। विदेशी सरकारों के इशारे पर राजनीति करने वाली माकपा को सोमनाथ चटर्जी का यह रवैया कि लोकसभा अध्यक्ष किसी पार्टी का नहीं होता है, भाया नहीं। कहा जाता है कि चीन के दखल के बाद माकपा ने उन्हें पार्टी से निकाला। इसके बाद सोमनाथ चटर्जी राजनीति में सक्रिय नहीं रहे। जो गलती आपातकाल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने सोवियत संघ के दवाब में तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार का समर्थन करके की थी, उसी तरह की गलती माकपा ने 2008 में चीनी दवाब में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते का विरोध करके की। नतीजा 2011 में पश्चिम बंगाल की जनता ने कम्युनिस्टों को सत्ता से बाहर कर दिया।
यह भी उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने लोकसभा की सदस्य रहते हुए राज्य की तत्कालीन कम्युनिस्ट सरकार पर मुस्लिम घुसपैठियों की मदद देने का आरोप लगाते हुए सोमनाथ चटर्जी पर टिप्पणी की थी। ममता ने लोकसभा से इस्तीफा भी दिया था। जिस तरह से ममता ने इस्तीफा दिया, उसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। सोमनाथ चटर्जी मजदूरों के अधिकारों के लिए हमेशा लड़ते रहे। गरीबों के मुद्दे को उन्होंने संसद में बड़ी मजबूती से उठाया। बार-बार कमजोर वर्गों की आवाज संसद में उठाते रहे। सोमनाथ दा संसद में बहस के दौरान राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मुद्दों को बड़ी गंभीरता, पूरे तथ्यों और जोरदार ढंग से रखते थे। संसद में उन्हें बड़े ध्यान से सुना जाता था। सोमनाथ चटर्जी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के भी प्रशंसक रहे थे। अपनी किताब में उन्होंने आपातकाल के बाद विदेश मंत्री बने वाजपेयी द्वारा उनका पासपोर्ट एक दिन में दिलाने में मदद करने पर प्रशंसा की थी। आपातकाल में इंदिरा गांधी ने उनका पासपोर्ट दोबारा नहीं बनने दिया था। आपातकाल से दुखी सोमनाथ लोकतंत्र की दुर्दशा के कारण विदेश जाना चाहते थे पर पासपोर्ट की अवधि समाप्त होने के कारण उनका पासपोर्ट नहीं बन पा रहा था। आपातकाल का विरोध करने वाले कुछ ही कम्युनिस्ट थे, जिनमें सोमनाथ चटर्जी प्रमुख थे। सोमनाथ चटर्जी ने पंचायत चुनाव के दौरान ममता सरकार की मनमानी और तृणमूल कांग्रेस के सदस्यों की गुंडागर्दी के कारण राष्ट्रपति शासन लगाने का सुझाव दे दिया था। उनकी टिप्पणी के बाद अब तो साफ लग रहा है कि ममता सरकार का जाना ही पश्चिम बंगाल की जनता की उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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