पिछले साल जब नीना गुप्ता ने ट्वीट लिखकर कहा था कि उन्हें काम चाहिए, तो थोड़ा यकीन सा नहीं हुआ था कि उनके जैसी कलाकार को काम की कमी है। और अब जब उन्हें ‘मुल्क़’ और ‘बधाई हो’ में देखा, तो थोड़ा और भी मुश्किल होता है ये समझना कि हम इतने अच्छे कलाकारों को एकदम भूल कैसे जाते हैं। लेकिन छोड़िये उसे, हमारी याददाश्त ऐसी ही है। फ़िलहाल बात करते हैं फ़िल्म की, जिसने हँसा-हँसाकर जबड़े में दर्द भी कर दिया, सचमुच, और आँसू तो हमारे हर तीसरी फ़िल्म में निकलते ही हैं, तो इंटर्न के डि-नीरो के कहे अनुसार रुमाल तो हम लेकर चलते हैं, लेकिन अक्सर अपने ही लिए।
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हर अच्छी फ़िल्म की तरह ‘बधाई हो’ की बात शुरू होती है कहानी से। यूँ तो कहीं पढ़ा था कि ये फ़िल्म बस एक चुटकुले पर बनी है, लेकिन वो चुटकुला बड़ा मज़ेदार है, और एक तरह से बात ठीक है। लेकिन फ़िल्म का आधार हँसाने वाला हो, उससे अच्छी फ़िल्म बनने की गारंटी उतनी ही है जितनी अच्छे चावल से अच्छी बिरयानी बनने की। कहने का तात्पर्य ये है कि फ़िल्म बनाने में फिसलने के लिए इतनी ज़्यादा चीज़ें हैं कि आधार तो बस एक आधार भर रह जाता है।
अक्सर इस आधार पर एक अच्छी कहानी सोची जाती है और उस कहानी को बदला जाता है एक पटकथा यानी स्क्रिप्ट/स्क्रीनप्ले में में जो निर्देशक यानी डायरेक्टर और उसकी विशाल टीम के हाथों में बनती-बिगड़ती हमारे सामने तक पहुँचती है। (प्रोसेस थोड़ा जटिल है लेकिन अभी लगभग इतना ही पता है।)
बधाई हो में कहानी थोड़ी कम-सी है। मतलब एक फ़िल्म के लिए कहानी के नाम पर अक्सर इससे थोड़े ज़्यादा की उम्मीद की जाती है। कहानी से यहाँ मेरा मतलब उस चीज़ से है जो आप किसी को सुनाएंगे शायद पाँच-सात-दस मिनट में अगर आपको किसी फ़िल्म की कहानी सुनाने को कहा जाए। वो कहानी अगर कम हो तो अक्सर पिक्चर या तो धीमी हो जाती है, या फिर रेपेटिटिव, यानी दोहराव-भरी।
लेकिन यहाँ स्क्रीनप्ले लिखने वालों और निर्देशक की क़ारीगरी है कि बधाई हो इन समस्याओं के पास से होकर गुज़र जाती है।
(आगे थोड़े ‘स्पॉइलर’ हैं, यानी कहानी में से कुछ हिस्से)
कारण शायद यही है कि लिखने और बनाने वालों ने फ़िल्म के किरदारों को बहुत पास से देखा है। फिर चाहे वो नौकरी के साथ कविता लिखने वाले पिता रहे हों, या रेने को रिनी बोलने वाली माँ। परिवार में सास को अपने साथ रखने वाली बहू की ज़िन्दगी मैंने जितने पास से देखी है, उसकी याद फ़िल्म से अचानक ही ताज़ा हो गई। और फ़िल्म में शादी का स्टेज देखकर दो साल पहले मेरठ में एक शादी के स्टेज की भी। हाँ, फ़िल्म में शादी में जिस डांस पर कुछ लोग हँसते दिखाई दिए, उसका मज़ाक बनाने की कोई ख़ास वजह समझ नहीं आई।
फ़िल्म की भाषा भी काफ़ी सटीक लगी। चाहे वो शब्दों के साथ रही हो या उनके बिना। सिर्फ़ ‘सरबाला’ जैसे कम सुने जाने वाले शब्दों की ही बात नहीं, नीना जी जब ‘माना करें’ बोलती थीं, तब भी ऐसा लगता था कि शायद घर के पड़ोस की ही कोई आंटी हैं। शब्दों का चुनाव और उनकी शैली, दोनों बड़ी सच्चाई भरी लगी है। और जिन जगहों पर कॉमेडी को डायलॉग के बिना लाया गया है, वो तो निश्चित रूप से बेहतरीन लगते हैं। शुरूआती कॉमेडी में सुरेखा जी (दादी) के कुछ डायलॉग छोड़कर, जो हँसी को खींचने की कोशिश में कम-से-कम मेरे लिए ज़रुरत से कुछ ज़्यादा हो गए, डायलॉग अक्सर फ़िल्म का एक बेहतरीन हिस्सा बने हैं।
कलाकारों की बात करें, तो जहाँ आयुष्मान फ़िल्म को शुरू में सेट-अप करने का काम अच्छा करते हैं, वहीं एक बार असली हीरो (गजराज राव) और असली कहानी के आने के बाद धीरे-धीरे सह-कलाकार बनते जाते हैं। उनकी कहानी पर जब ज़ोर दिया जाता है, तो थोड़ा-सा फ़िल्मी भी लगने लगता है, लेकिन आख़िर के एक गाने को छोड़कर कहीं ‘टू मच’ नहीं होता। गूलर की कुछ अलग-थलग पड़ी कहानी के समय भी नहीं। हाँ, आख़िरी गाने (नैना न जोड़ीं) में लग रहा था कि इसका शायद एक ही अन्तरा काफ़ी था। अब ये निर्देशक का डर हो या निर्माता का दबाव, लेकिन अभी तक अच्छे गाने को फ़िल्म से निकालना हम थोड़ा मुश्किल तो पाते हैं।
लेकिन असली बात रही उन हीरो और हीरोइन की, जिनकी केमिस्ट्री बिना किसी गाने के फ़िल्म में उभर-उभर कर दिखती है। ये शायद फ़िल्म के सबसे मज़बूत पक्षों में से एक है और इसे परदे पर इतनी अच्छी तरह दिखाने लिए गजराज राव, नीना गुप्ता और डायरेक्टर अमित शर्मा तीनों ही श्रेय के हक़दार हैं।
(स्पॉइलर समाप्त)
फ़िल्म का संगीत अच्छा है, और शब्द यहाँ भी उसमें जान डालते हैं। हालाँकि गानों की गिनती और उनके चयन में थोड़ी असुरक्षा की भावना दिखाई देती है।
‘बधाई हो’ की एक अच्छी बात यह है कि फ़िल्म बिना उपदेश दिए, ‘परिवार’ से लेकर ‘संस्कार’ तक के विषयों पर दो-एक अच्छी चीज़ें भी बता जाती है, और एक छोटा-सा सन्देश भी दे जाती है, कि अपने माता-पिता को उन दो शब्दों के बाहर, इनसान के रूप में देखना भी ज़रूरी है।
‘बधाई हो’ परिवार के साथ देखने के लिए अच्छी फ़िल्म है। एकाध ‘किसिंग’ सीन है, लेकिन टीवी को मानक मानकर चला जाए, तो कुछ बहुत बड़ा नहीं है। उम्मीद है कि इसके लेखक-निर्देशक आगे आने वाली फ़िल्मों में थोड़ा और निडर होकर, थोड़े और कम समझौते करके वह कह पाएँ जो उन्हें कहना है।