कोई भी बात उकसाती नहीं है
न जाने क्यों वो इठलाती नहीं है
कभी दौड़े थे जिन पगडंडियों पर
हमें किस्मत वहाँ लाती नहीं है
मुझे लौटा दिया सामान सारा
है इक “टैडी” जो लौटाती नहीं है
कहाँ अब दम रहा इन बाजुओं में
कमर तेरी भी बलखाती नहीं है
नहीं छुपती है च्यूंटी मार कर अब
दबा कर होठ शर्माती नहीं है
तुझे पीता हूँ कश के साथ कब से
तू यादों से कभी जाती नहीं है
“छपक” “छप” बारिशों की दौड़ अल्हड़
गली में क्यों नज़र आती नहीं है
अभी भी ओढ़ती है शाल नीली
मगर फिर भी वो इठलाती नहीं है
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