New Delhi:
अक्सर हम-आप गुरुद्वारों में लंगर खाते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि लंगर की परंपरा किसने शुरू की ? आपको बताते हैं कि लंगर की परंपरा सिखों के तीसरे गुरु अमरदास जी ने शुरू की थी। गुरु भी इतने महान कि अपने से उम्र में 25 साल छोटे अपने समधी के भक्ति भाव को देखकर उन्हें अपना गुरु माना और 11 साल तक गुरु की तरह सेवा करते रहे । उनका नाम था गुरु अंगद देव जी और वो सिखों के दूसरे गुरु कहलाए, और अमरदास जी तीसरे गुरु बने ।
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समाज में जाति-प्रथा, ऊंच-नीच, कन्या-हत्या, सती-प्रथा जैसी अनेक बुराइयों के खिलाफ लड़ने वाले गुरु अमरदास जी का जन्म 23 मई, 1479 को अमृतसर के 'बासर के' गांव में तेजभान और लखमी जी के यहां हुआ। गुरु जी ने अमृतसर से 21 बार पैदल हरिद्वार की फेरी लगाई।
आपको बता दें कि उन दिनों मध्यकालीन भारतीय समाज सामंतवादी समाज होने के कारण अनेक सामाजिक बुराइयों से घिरा था। ऐसे कठिन समय में गुरु अमरदास जी ने सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध बड़ा प्रभावशाली आंदोलन चलाया। जाति-प्रथा एवं ऊंच-नीच को समाप्त करने के लिए गुरु जी ने लंगर प्रथा को और कारगार बनाया ।
उस जमाने में भोजन करने के लिए जातियों के अनुसार अलग-अलग व्यवस्था थीं, लेकिन गुरु जी ने सभी के लिए एक ही लाइन में बैठकर लंगर छकना अनिवार्य कर दिया। कहते हैं कि जब मुगल बादशाह अकबर गुरु-दर्शन के लिए गोइंदवाल साहिब आया, तो उसने भी लोगों के साथ एक ही लाइन में बैठकर लंगर छका। यही नहीं छुआछूत को समाप्त करने के लिए गुरु जी ने गोइंदवाल साहिब में एक 'सांझी बावली' का निर्माण भी कराया। कोई भी मनुष्य बिना किसी भेदभाव के इसके जल का प्रयोग कर सकता था।
गुरु अमर दास जी का विवाह माता मंसा देवी जी से हुआ था। उनके चार बच्चे थे। दो बेटियां बीबी दानी जी और बीबी भानी जी थी। बीबी भानी जी का विवाह गुरु रामदास साहिब जी से हुआ था, और उनके दो बेटे मोहन और मोहरी थे। गुरु साहिब ने अपने किसी भी पुत्र को सिख गुरु बनने के योग्य नहीं समझा, इसलिए उन्होंने अपने दामाद गुरु रामदास साहिब को गुरुपद प्रदान किया। यह एक प्रयोग धर्मी निर्णय था। बीबी भानी जी और गुरु रामदास साहिब में सिख सिद्धान्तों को समझने और सेवा की सच्ची श्रद्धा थी और वो इसके पूरी तरह से काबिल भी थे। यह प्रथा बताती है कि गुरूपद किसी को भी दिया जा सकता है।
गुरु जी का एक और क्रांतिकारी काम सती-प्रथा को खत्म करना था। उन्होंने सती-प्रथा जैसी घिनौनी रस्म को स्त्री के अस्तित्व के खिलाफ मानकर जबरदस्त प्रचार किया। गुरु जी द्वारा रचित वार सूही में सती प्रथा का ज़ोरदार विरोध किया गया है। इतिहासकारों का मत है कि गुरु जी सती प्रथा के विरोध में आवाज उठाने वाले पहले समाज सुधारक थे। यह गुरु अमरदास जी और बाद के अन्य समाज सुधारकों की कोशिशों का ही फल है कि आज का समाज अनेक बुराइयों से दूर हो सका है।
गुरु अमरदास जी ने विधवा विवाह को बढ़ावा दिया और महिलाओं को पर्दा प्रथा छोड़ने के लिए कहा। उन्होंने जन्म, मृत्यु और विवाह के लिए सामाजिक रूप से आधुनिक जीवन दर्शन को समाज के सामने रखा। इस प्रकार उन्होंने सामाजिक धरातल पर एक राष्ट्रवादी और आध्यात्मिक आन्दोलन शुरू किया। इस विचारधारा के सामने मुस्लिम कट्टपंथियों का जेहादी फलसफा था। उन्हें इन मुस्लिमों से विरोध भी झेलना पड़ा। उन्होंने लोगों के लिए तीन प्रकार के सामाजिक और सांस्कृतिक मिलन समारोह शुरू किए। ये तीन समारोह थे- दीवाली, वैसाखी एवं माघी।
1 सितंबर 1574 को गुरु जी इस संसार से विदा हो गए । हमारे लिए कल्पना भी करना कितना मुश्किल है कि आज से करीब 500 साल पहले किसी ने आज की परेशानियों को समझकर इतना बढ़ा सुधार किया, उनकी इतनी बड़ी अदूरदर्शिता और समाज में उनके गहरे योगदान को इंसान कभी नहीं भूल पाएगा ।
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