NEW DELHI:
सभी खिलाड़ी सोने के चम्मच के साथ पैदा नहीं होते। इतिहास अक्सर वही लिखते हैं जिन्होंने जिंदगी में बुरा वक्त देखा हो। उस बुरे वक्त को जो चीर गया उसका नाम हमेशा स्वर्ण अक्षरों में ही लिखा गया।यूपी के वाराणसी में कुश्ती की नेशनल प्लेयर खुद की डाइट और खर्च के लिए मंदिर के बाहर फूल-माला बेचती है। खिलाड़ी कहती है- बचपन में ही पिता का साया सिर से उठ गया था। लोग बुरी नजर से देखते थे। इसलिए फैसला किया कि पहलवान बनूंगी, ताकि कोई गलत नजर न डाल सके।
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वाराणसी की रहने वाली आस्था वर्मा कहती हैं- पापा रतन वर्मा का बचपन में ही निधन हो गया था। हम 3 भाई-बहन हैं। मां मधु वर्मा ने नानी के यहां रहकर हमें पढ़ाया-लिखाया। 2008 में जब मैं 9वीं क्लास में थी, तब दुर्गाचरण इंटर कॉलेज में स्पोर्ट्स के कोच गोरखनाथ यादव ने मुझे कुश्ती के लिए चुना। पहले मुझे पता नहीं था कि गेम्स क्या होते हैं। स्कूल में मुझे कबड्डी खेलते देख गोरख सर ने मुझे चुना। 2009 से मैंने कुश्ती लड़ना शुरू किया और स्कूली गेम्स में भाग लेने लगी।
शुरूआत में लोग मां को ताने मारते थे कि तुम ये क्या कर रही हो, लड़कों के साथ लड़की को कुश्ती लड़ा रही हो। लेकिन अब वही लोग मेरी और फैमिली की तारीफ करते हैं। कुश्ती की प्रैक्टिस के लिए मुझे उस तरह की डाइट नहीं मिल पाती थी, क्यूंकि आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। इसलिए हम सब मिलकर चिंतामणि गणेश मंदिर के बाहर फूल-माला बेचते हैं। दुकान को बारी-बारी से मैं, मां और दीदी संभालते हैं। खाने के खर्च के लिए 2 से ढाई हजार रुपए दुकान से निकल जाते हैं। लेकिन आजतक कुश्ती की किट नहीं खरीद पाई। आज भी कुछ लोग ऐसे मिल जाते हैं, जो उल्टा सीधा कमेंट करते हैं।
इनके कोच गोरखनाथ यादव कहते हैं- आस्था को कुश्ती के हिसाब से डाइट मिले, तो वह एक दिन इंटरनेशनल खिलाड़ी बन सकती है। उसके अंदर फुर्ती-पॉवर दोनों मौजूद है। रिंग के साथ-साथ ग्राउंड में भी वो बेहतर प्रदर्शन करती है।
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