द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर की नात्सी सेना को धूल चटाकर समूची मानवता को फ़ासीवादी राक्षस से छुटकारा दिलाने में सोवियत संघ की लाल सेना के कालजयी योगदान को यहां तक कि ईमानदार बुर्जुआ इतिहासकार भी मानते हैं। स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ के समाजवादी प्रयोग ने न सिर्फ़ यह सिद्ध किया कि सर्वहारा वर्ग उत्पादन, शासन-प्रशासन और समाज के पूरे ढाँचे को चलाने में समर्थ है बल्कि यह भी कि ज़रूरत पड़ने पर वह रणक्षेत्र में भी दुश्मन का मुँहतोड़ जवाब दे सकता है। स्तालिन के नेतृत्व में लाल सेना ने जिस अद्भुत वीरता और शौर्य का परिचय दिया वह मानवता के इतिहास में अप्रतिम है। परन्तु, द्वितीय विश्वयुद्ध के ख़त्म होने के छह दशक बाद आज न सिर्फ़ स्तालिन के उस महान योगदान को भुलाया जा रहा है बल्कि साम्राज्यवादी ताकतें एक साज़िशाना ढंग से उनके महान व्यक्तित्व को झूठ और कुत्सा–प्रचार के सहारे कलंकित करने के काम में लगी हुई हैं। साम्राज्यवादियों की इस कुत्सा-प्रचार मुहिम में बाॅल्शेविक क्रान्ति के भगोड़े और गद्दार त्रॉत्स्की का लेखन काफ़ी मददगार साबित होता है और दुनिया भर में फैले मार्क्सवाद-लेनिनवाद का चोला ओढ़े भांति-भांति के त्रॉत्स्कीपंथी स्तालिन के बहाने कम्युनिज़्म की विचारधारा पर कीचड़ फेंक कर उसके प्रति अविश्वास और विभ्रम फैलाने में साम्राज्यवादियों के काम को आसान कर रहे हैं। ऐसा ही एक त्रॉत्स्कीपंथी राजेश त्यागी है जिसके फ़ेसबुक वाल को देखकर कोई भी यह समझ सकता है कि उसने सुबह-शाम पानी पी-पी कर क्रान्तिकारियों को कोसना अपनी ज़िन्दगी का लक्ष्य बना लिया है। ज़ाहिर है कि ऐसा घृणित काम लंबे समय तक मानसिक रूप से संतुलित कोई व्यक्ति नहीं कर सकता। इसलिए समय बीतने के साथ ही साथ उसकी मानसिक विक्षिप्तता बढ़ती ही जा रही है। हाल ही में उसने स्तालिन पर बदबूदार कीचड़ फेंकते हुए एक लेख लिखा है जिसमें उसने झूठ बोलने और कुत्सा-प्रचार करने के अपने पुराने सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये हैं। अभी तक तो राजेश त्यागी के कुत्सा–प्रचार की गंध फ़ेसबुक तक ही सीमित थी, लेकिन अब क्रान्तिकारी आंदोलन के भगोड़ों द्वारा संचालित वेबसाइट जनज्वार डॉट कॉम ने उसे एक नया मंच प्रदान किया है। वैसे देखा जाय तो क्रान्ति के भगोड़ों और गद्दारों का यह अपवित्र गठबंधन स्वाभाविक ही है।
बहरहाल, आइये देखते हैं कि किस प्रकार राजेश त्यागी ने तथ्यों के साथ दुराचार करके इतिहास को तोड़-मरोड़ कर विकृत करने की अपनी त्राॅत्सकीपंथी पद्धति का नया नमूना प्रस्तुत किया है। 14 मार्च को जनज्वार में प्रकाशित एक लेख (http://www.janjwar.com/janjwar-special/27-janjwar-special/4846-fasist-hitlor-se-stalin-ke-yarane-ka-khooni-itihas-for-janjwar-by-rajesh-tyagi) में राजेश त्यागी ने झूठ और कुत्सा-प्रचार का एक पुलिंदा खड़ा करते हुए यह बताने की हास्यास्पद कोशिश की है कि स्तालिन और हिटलर पुराने यार थे और उन्होंने मिलजुलकर दूसरा विश्वयुद्ध छेड़ा। वैसे तो इस किस्म की मनोहर कहानियां किसी जवाब की हक़दार नहीं हैं, परन्तु चूंकि इतिहास की जानकारी के अभाव में तमाम लोग ऐसे मनगढंत किस्से-कहानियों को ही इतिहास समझ लेते हैं, इसलिए फ़ासीवाद के उभार और दूसरे विश्वसयुद्ध के इतिहास की सही समझ स्थापित करना क्रान्तिकारी आन्दोलन का एक अहम कार्यभार बनता है।
वैचारिक मोतियाबिंद के शिकार राजेश त्यागी ने अपने लेख में न सिर्फ़ दूसरे विश्वयुद्ध के लिए बल्कि जर्मनी में फ़ासीवाद के उभार के लिए भी स्तालिन को मुख्य रूप से जिम्मे़दार ठहराया है। मार्क्सवाद का ककहरा भी समझने वाला कोई व्यक्ति यह जानता है कि फ़ासीवादी उभार और युद्ध दोनों ही साम्राज्यवाद के दौर में पूंजीवाद के अन्तर्विरोधों की तार्किक परिणति होते हैं। लेकिन त्रॉत्स्की को आदर्श समझने वाले से मार्क्सवाद की बुनियादी समझदारी की अपेक्षा करना व्यर्थ है। त्रॉत्स्की से ज्ञान की पुड़िया उधार लेते हुए राजेश त्यागी बेशर्मी के साथ यह दावा करता है कि ''जर्मनी में हिटलर का उभार सीधे-सीधे स्तालिन के मातहत कोमिन्तर्न की गलत नीतियों का परिणाम था।'' जर्मनी के इतिहास से वाकिफ़ कोई भी व्यक्ति इस बेसिरपैर की बात पर ठहाका लगाकर हंसेगा। सच्चाई यह है कि साम्राज्यवाद के अन्तर्विरोधों के तीव्र होने के अतिरिक्त जर्मनी में फ़ासीवाद के उभार का तात्कालिक कारण वहां के सामाजिक जनवादियों का गद्दारी से भरा आचरण रहा था। प्रथम विश्वजयुद्ध के बाद से ही जर्मनी में पूँजीवादी राज्यसत्ता पर सामाजिक जनवादियों का दबदबा रहा और उन्होंने वहां सर्वहारा क्रान्ति को विफल करने में प्रमुख भूमिका अदा की। 1918 में जर्मन सर्वहारा के शीर्ष नेताओं रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग और विल्हेम लीब्नेख़्त की नृशंस हत्या करा दी गयी और सामाजिक जनवादियों के शासनकाल में उनके हत्यारे बेख़ौफ़ घूमते रहे। उसके बाद पूँजीपति वर्ग के वफ़ादार सेवक की भांति सामाजिक जनवादियों ने जर्मन मज़दूर आन्दोलन को बेरहमी से कुचलने में पूरा ज़ोर लगा दिया। 1929 की महामंदी के बाद इन सामाजिक जनवादियों के शासनकाल में ही हिटलर के नेतृत्व में फ़ासीवाद रूपी राक्षस ने जर्मन समाज में तेजी से अपने पैर पसारे और उस पर अंकुश लगाने की बजाय उन्होंने उसको बढ़ावा दिया। उनके संरक्षण में फ़ासिस्ट बैंड और सशस्त्र फ़ासिस्ट प्रदर्शन सरेआम आयोजित होते रहे, जबकि कम्युनिस्टों के जुझारू संगठन रेड फ्रंट पर तमाम बंदिशें लगायी जाती रहीं। जिस प्रकार प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान यूरोप के सामाजिक जनवादियों की सर्वहारा वर्ग से गद्दारी को रेखांकित करते हुए लेनिन ने उन्हें सामाजिक-अंधराष्ट्रवादी की संज्ञा दी थी उसी प्रकार जर्मनी के सामाजिक जनवादियों द्वारा सर्वहारा वर्ग से गद्दारी कर फ़ासीवाद को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए 1928 में कोमिंतर्न की छठीं कांग्रेस में उन्हें सामाजिक-फ़ासीवादी कहा गया था जोकि उस समय की परिस्थितियों में बिल्कु्ल सही मूल्यांकन था।
राजेश त्यागी ने बेशर्मी की सारी हदें पार करते हुए ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर यह लिखा है कि कोमिंतर्न ने कम्युनिस्ट पार्टी को 1929 में फासिस्टों के साथ रेड रिफरेंडम के नाम पर संयुक्त मोर्चा बनाने का निर्देश दिया था। यह एक सफ़ेद झूठ है! सिर्फ़ त्रॉत्स्की और राजेश त्यागी जैसे सचेतन प्रति-क्रान्तिकारी ही इस किस्म के सफ़ेद झूठ को इतनी बेहयाई से बोल सकते हैं! जर्मन इतिहास में जिस घटना को रेड रिफरेंडम के नाम से जाना जाता है वह 1931 में महामंदी के दौर में सामाजिक जनवादी सरकार के प्रति अविश्वास प्रकट करता हुआ एक स्थानीय रिफरेंडम था न कि फासिस्टों के साथ कम्युनिस्ट पार्टी का कोई संयुक्त मोर्चा । इस रिफरेंडम का वैसे भी कोई फैसला नहीं हुआ और हिटलर के सत्ता में आने का इससे दूर-दूर तक भी कोई लेना-देना नहीं था। वास्तव में हुआ यह कि महामंदी की वजह से तेजी से फैलते सामाजिक असंतोष और सामाजिक-जनवादियों के प्रति जनता के बढ़ते मोहभंग और कम्युनिस्टों के जनाधार में विस्तार से घबराकर जर्मन पूँजीपति वर्ग का भरोसा सामाजिक जनवादियों से उठ गया और उन्हें जनविद्रोहों को रोकने के लिए हिटलर के रूप में एक बर्बर फ़ासिस्ट शासक ज़्यादा कारगर लगा। साथ ही बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी और छँटनी से तंग आकर मध्य वर्ग का एक बड़ा तबका और सर्वहारा का विमानवीकृत लंपट हिस्सा भी हिटलर की शरण में जा पहुंचा। इन सभी पहलुओं ने हिटलर को सत्ता में लाने में मदद की। हिटलर कम्युनिस्टों को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानता था यह इस तथ्य से भी स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता में आने पर उसने सबसे पहले कम्युनिस्टों का ही बर्बरतापूर्वक दमन करवाया।
जहां तक फ़ासिस्टों के ख़िलाफ़ संयुक्त मोर्चा बनाने का सवाल है, नात्सी पार्टी के बढ़ते जनाधार और फ़ासीवाद के आसन्न ख़तरे को देखते हुए जर्मनी की कम्युानिस्ट पार्टी ने इस दिशा में कई बार (हिटलर के सत्ता में आने से पहले भी और बाद में भी) ठोस प्रयास किये थे जिसका ज़िक्र ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रसिद्ध नेता रजनी पाम दत्त ने अपनी किताब फ़ाशिज़्म एंड सोशल रेवोल्यूशन में किया है। परन्तु सामाजिक जनवादी नेताओं ने कम्युनिस्ट पार्टी और रेड ट्रेड यूनियन की इस बारंबार अपील की अनदेखी की। ऐसे में साफ़ है कि दोषी सामाजिक जनवादी हुए न कि कम्युनिस्ट। 1935 में कोमिंतर्न की सातवीं कांग्रेस में फ़ासीवाद के बढ़ते ख़तरे के मद्देनज़र मेहनतकशों सहित सभी फ़ासिस्ट-विरोधी ताकतों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की ज़रूरत को विशेष रूप से रेखांकित किया गया था। इसी नीति के तहत फ्रांस, स्पेन, चीन और चिले जैसे कई देशों में ऐसे जनमोर्चे सफलतापूर्वक बनाये भी गये। परन्तु त्रॉत्स्की को इससे भी एतराज़ था क्योंकि उसका कहना था कि सिर्फ़ मेहनतकशों की पार्टियों और संगठनों को ही इस मोर्चे में शामिल करना चाहिए। यदि त्रॉत्स्की की यह संकीर्णतावादी लाइन चीन में लागू की गई होती तो चीन की कम्युनिस्ट पार्टी जापानी साम्राज्यवादी हमले का मुँहतोड़ जवाब नहीं दे पाती और चीनी क्रान्ति आगे नहीं बढ़ पाती। वैसे 1930 के दशक में त्रॉत्स्की के निजी आचरण को देखने से यह साफ़ जाहिर होता है कि संयुक्त मोर्चे की बात उसके लिए जुबानी जमा खर्च से ज़्यादा कुछ नहीं थी। सच तो यह है कि इस पूरे दौर में वह साम्राज्यवाद के एजेंट की भूमिका निभाते हुए विध्वंसक और षडयंत्रकारी गतिविधियों में लिप्त था। यही वह दौर था जब वह चीन में क्रान्ति की असंभाविता की और युद्ध की सूरत में सर्वहारा के राज्य सोवियत संघ की फ़ासीवाद से शिकस्त की न सिर्फ भविष्यवाणियां कर रहा था बल्कि लाल सेना और सोवियत सर्वहारा को स्तालिन के नेतृत्व के खिलाफ़ बग़ावत करने के लिए उकसा रहा था। राजेश त्यागी ने अपने लेख में स्पेन के गृहयुद्ध के बारे में भी सरासर झूठ लिखा है। सच तो यह है कि त्रॉत्स्कीपंथी संगठन पौम (POUM) की विध्वंसक और अराजक कार्रवाइयों के चलते रूस सहित तमाम देशों के कम्युनिस्टों के अकूत बलिदान के बावजूद स्पेन में फ़ासिस्ट-विरोधी मोर्चे की शिकस्त हुई और फ्रांको के नेतृत्व में फ़ासीवाद की जीत हुई।
दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होने में अपनी भूमिका को छिपाने के मक़सद से साम्राज्यवादी अक्सर इसके ठीक पहले सोवियत संघ और जर्मनी के बीच हुए अनाक्रमण समझौते के बारे में जोर-शोर से प्रचार करते हैं। इसमें बिल्कुल आश्चर्य की बात नहीं है कि राजेश त्यागी ने भी स्तालिन पर कीचड़-फेंक अभियान में साम्राज्यवादियों के इसी कुत्सा-प्रचार का सहारा लिया है। लेकिन इस ओछे त्रॉत्स्कीपंथी ने निहायत ही शातिराना ढंग से ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका जैसे साम्राज्यवादी देशों द्वारा फासिस्टों के तुष्टीकरण के लंबे इतिहास को गोल कर दिया और साथ ही साथ अलग-थलग पड़ने के बावजूद फ़ासीवाद के आसन्न ख़तरे से निपटने के लिए सोवियत संघ द्वारा इन पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के साथ मिलकर एक सामूहिक सुरक्षा समझौते को संपन्न कराने के अनथक प्रयासों की कोई चर्चा ही नहीं की। सच तो यह है कि 1917 में बोल्शेविक क्रान्ति के बाद स्थापित सोवियत संघ की सर्वहारा सत्ता साम्राज्यवादियों को फूटे आंख नहीं सुहाती थी। परन्तु प्रत्यक्ष हमलों, घेराव और नाकेबंदी के ज़रिये साम्राज्यावादी उसका बाल भी बांका न कर सके। 1933 में हिटलर के सत्ता में आने के बाद से ही दूसरे विश्वयुद्ध के काले बादल मंडराने शुरू हो चुके थे। ऐसे में पश्चिमी साम्राज्यवादियों की रणनीति हिटलर के तुष्टीकरण करने और उसे उकसाने की थी ताकि वह सोवियत संघ पर हमला कर दे और इस प्रक्रिया में सोवियत संघ का भी ख़ात्मा हो जाये और हिटलर भी कमज़ोर पड़ जायेगा।
1936 में जर्मनी, इटली और जापान का फासिस्ट गठबंधन खुले रूप में अस्तित्व में आया। 1936 में ही इटली ने इथियोपिया पर हमला किया। सोवियत संघ के प्रस्ताव के बावजूद इटली के ख़िलाफ़ कोई कारगर सामूहिक क़दम नहीं उठाया गया। 1938 में नात्सियों ने आस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया पर कब्ज़ा कर लिया। इस प्रकार नात्सी सोवियत संघ की सीमा की ओर तेज़ी से अग्रसर हो रहे थे। ऐसे में फ़ासीवाद के ख़तरे से निपटने के लिए सामूहिक पहल लेने के बजाय पश्चिमी ताकतें हिटलर को सोवियत संघ पर हमला करने के लिए उकसाने में ही लगी हुई थीं। 29-30 सितंबर 1938 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री चैंबरलेन और फ्रेंच प्रधानमंत्री दलादिए ने म्यूनिक में हिटलर और मुसोलिनी के साथ मुलाकात की और प्रसिद्ध 'म्यूनिक समझौते' पर हस्ताक्षर किये जिसके तहत चेकोस्लोवाकिया का विभाजन कर कुछ महत्वपूर्ण इलाके जर्मनी को दे दिये गये। इसके बाद ब्रिटेन और फ्रांस ने अलग-अलग जर्मनी के साथ अनाक्रमण संधि करके उसे सोवियत संघ पर हमले के लिए और उकसाया। यही नहीं स्पेनी गणराज्य को कुचलने में उन्होंने जर्मन और इतालवी आक्रामकों का साथ दिया। 1939 तक आते-आते यह साफ़ हो चुका था कि दूसरा विश्वयुद्ध कभी भी छिड़ सकता है। यह वह परिदृश्य था जिसमें सोवियत संघ को मजबूर होकर अपनी सीमा की सुरक्षा के लिए अगस्त 1939 में जर्मनी के साथ अनाक्रमण समझौता करना पड़ा जिसे मोलोतोव-रिबेनट्रॉप समझौते के नाम से जाना जाता है। वैसे देखा जाय तो यह एक ऐसा कूटनीतिक मास्टरस्ट्रोक था जिसके लिए विश्व सर्वहारा के नेता स्तालिन की प्रशंसा की जानी चाहिए क्योंकि इसके ज़रिये सोवियत संघ ने साम्राज्यवादियों के दोनों धड़ों को आपस में ही लड़ाई में उलझा दिया और युद्ध की तैयारी के लिए बेशकीमती दो वर्ष अर्जित किये। इसकी ताईद ई एच कार और इसाक ड्यूशर जैसे त्रॉत्स्कीपंथी इतिहासकार भी करते हैं। ग़ौरतलब है कि सोवियत सेना ने पोलैंड की सीमा वहां नात्सी हमले के 16 दिनों बाद तब पार की जब एक राज्य के रूप में उसका कोई वजूद नहीं रह गया था और उसने केवल उन्हीं क्षेत्रों काे अपने नियन्त्रण में लिया जो अक्टूबर क्रान्ति के बाद पोलैंड के शासकों ने उससे छीन ली थी। यह भी इतिहास का तथ्य है कि पोलैंड की जनता ने लाल सेना का मुक्तिदाता और नायकों के रूप में स्वागत किया था। लेकिन राजेश त्यागी जैसे छिछोरे त्रॉत्स्कीपंथी को भला वस्तुगत इतिहास से क्या लेना-देना है! उसका एकमात्र ध्येय दुनिया की तमाम समस्याओं के लिए क्रान्तिकारियों को जिम्मेदार ठहराना है! यही वजह है कि वह अपने लेख में यह नहीं बताता है कि हिटलरनुमा फ़ासीवादी दानव को फैसलाकुन शिकस्त स्तालिन के नेतृत्व में लाल सेना के लड़ाकों ने रूसी जनता के साथ मिलकर स्तालिनग्राद की गलियों में अपने बेमिसाल शौर्य, पराक्रम और अकूत कुर्बानियों की बदौलत दी थी। राजेश त्यागी के आका
बहरहाल, आइये देखते हैं कि किस प्रकार राजेश त्यागी ने तथ्यों के साथ दुराचार करके इतिहास को तोड़-मरोड़ कर विकृत करने की अपनी त्राॅत्सकीपंथी पद्धति का नया नमूना प्रस्तुत किया है। 14 मार्च को जनज्वार में प्रकाशित एक लेख (http://www.janjwar.com/janjwar-special/27-janjwar-special/4846-fasist-hitlor-se-stalin-ke-yarane-ka-khooni-itihas-for-janjwar-by-rajesh-tyagi) में राजेश त्यागी ने झूठ और कुत्सा-प्रचार का एक पुलिंदा खड़ा करते हुए यह बताने की हास्यास्पद कोशिश की है कि स्तालिन और हिटलर पुराने यार थे और उन्होंने मिलजुलकर दूसरा विश्वयुद्ध छेड़ा। वैसे तो इस किस्म की मनोहर कहानियां किसी जवाब की हक़दार नहीं हैं, परन्तु चूंकि इतिहास की जानकारी के अभाव में तमाम लोग ऐसे मनगढंत किस्से-कहानियों को ही इतिहास समझ लेते हैं, इसलिए फ़ासीवाद के उभार और दूसरे विश्वसयुद्ध के इतिहास की सही समझ स्थापित करना क्रान्तिकारी आन्दोलन का एक अहम कार्यभार बनता है।
वैचारिक मोतियाबिंद के शिकार राजेश त्यागी ने अपने लेख में न सिर्फ़ दूसरे विश्वयुद्ध के लिए बल्कि जर्मनी में फ़ासीवाद के उभार के लिए भी स्तालिन को मुख्य रूप से जिम्मे़दार ठहराया है। मार्क्सवाद का ककहरा भी समझने वाला कोई व्यक्ति यह जानता है कि फ़ासीवादी उभार और युद्ध दोनों ही साम्राज्यवाद के दौर में पूंजीवाद के अन्तर्विरोधों की तार्किक परिणति होते हैं। लेकिन त्रॉत्स्की को आदर्श समझने वाले से मार्क्सवाद की बुनियादी समझदारी की अपेक्षा करना व्यर्थ है। त्रॉत्स्की से ज्ञान की पुड़िया उधार लेते हुए राजेश त्यागी बेशर्मी के साथ यह दावा करता है कि ''जर्मनी में हिटलर का उभार सीधे-सीधे स्तालिन के मातहत कोमिन्तर्न की गलत नीतियों का परिणाम था।'' जर्मनी के इतिहास से वाकिफ़ कोई भी व्यक्ति इस बेसिरपैर की बात पर ठहाका लगाकर हंसेगा। सच्चाई यह है कि साम्राज्यवाद के अन्तर्विरोधों के तीव्र होने के अतिरिक्त जर्मनी में फ़ासीवाद के उभार का तात्कालिक कारण वहां के सामाजिक जनवादियों का गद्दारी से भरा आचरण रहा था। प्रथम विश्वजयुद्ध के बाद से ही जर्मनी में पूँजीवादी राज्यसत्ता पर सामाजिक जनवादियों का दबदबा रहा और उन्होंने वहां सर्वहारा क्रान्ति को विफल करने में प्रमुख भूमिका अदा की। 1918 में जर्मन सर्वहारा के शीर्ष नेताओं रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग और विल्हेम लीब्नेख़्त की नृशंस हत्या करा दी गयी और सामाजिक जनवादियों के शासनकाल में उनके हत्यारे बेख़ौफ़ घूमते रहे। उसके बाद पूँजीपति वर्ग के वफ़ादार सेवक की भांति सामाजिक जनवादियों ने जर्मन मज़दूर आन्दोलन को बेरहमी से कुचलने में पूरा ज़ोर लगा दिया। 1929 की महामंदी के बाद इन सामाजिक जनवादियों के शासनकाल में ही हिटलर के नेतृत्व में फ़ासीवाद रूपी राक्षस ने जर्मन समाज में तेजी से अपने पैर पसारे और उस पर अंकुश लगाने की बजाय उन्होंने उसको बढ़ावा दिया। उनके संरक्षण में फ़ासिस्ट बैंड और सशस्त्र फ़ासिस्ट प्रदर्शन सरेआम आयोजित होते रहे, जबकि कम्युनिस्टों के जुझारू संगठन रेड फ्रंट पर तमाम बंदिशें लगायी जाती रहीं। जिस प्रकार प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान यूरोप के सामाजिक जनवादियों की सर्वहारा वर्ग से गद्दारी को रेखांकित करते हुए लेनिन ने उन्हें सामाजिक-अंधराष्ट्रवादी की संज्ञा दी थी उसी प्रकार जर्मनी के सामाजिक जनवादियों द्वारा सर्वहारा वर्ग से गद्दारी कर फ़ासीवाद को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए 1928 में कोमिंतर्न की छठीं कांग्रेस में उन्हें सामाजिक-फ़ासीवादी कहा गया था जोकि उस समय की परिस्थितियों में बिल्कु्ल सही मूल्यांकन था।
राजेश त्यागी ने बेशर्मी की सारी हदें पार करते हुए ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर यह लिखा है कि कोमिंतर्न ने कम्युनिस्ट पार्टी को 1929 में फासिस्टों के साथ रेड रिफरेंडम के नाम पर संयुक्त मोर्चा बनाने का निर्देश दिया था। यह एक सफ़ेद झूठ है! सिर्फ़ त्रॉत्स्की और राजेश त्यागी जैसे सचेतन प्रति-क्रान्तिकारी ही इस किस्म के सफ़ेद झूठ को इतनी बेहयाई से बोल सकते हैं! जर्मन इतिहास में जिस घटना को रेड रिफरेंडम के नाम से जाना जाता है वह 1931 में महामंदी के दौर में सामाजिक जनवादी सरकार के प्रति अविश्वास प्रकट करता हुआ एक स्थानीय रिफरेंडम था न कि फासिस्टों के साथ कम्युनिस्ट पार्टी का कोई संयुक्त मोर्चा । इस रिफरेंडम का वैसे भी कोई फैसला नहीं हुआ और हिटलर के सत्ता में आने का इससे दूर-दूर तक भी कोई लेना-देना नहीं था। वास्तव में हुआ यह कि महामंदी की वजह से तेजी से फैलते सामाजिक असंतोष और सामाजिक-जनवादियों के प्रति जनता के बढ़ते मोहभंग और कम्युनिस्टों के जनाधार में विस्तार से घबराकर जर्मन पूँजीपति वर्ग का भरोसा सामाजिक जनवादियों से उठ गया और उन्हें जनविद्रोहों को रोकने के लिए हिटलर के रूप में एक बर्बर फ़ासिस्ट शासक ज़्यादा कारगर लगा। साथ ही बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी और छँटनी से तंग आकर मध्य वर्ग का एक बड़ा तबका और सर्वहारा का विमानवीकृत लंपट हिस्सा भी हिटलर की शरण में जा पहुंचा। इन सभी पहलुओं ने हिटलर को सत्ता में लाने में मदद की। हिटलर कम्युनिस्टों को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानता था यह इस तथ्य से भी स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता में आने पर उसने सबसे पहले कम्युनिस्टों का ही बर्बरतापूर्वक दमन करवाया।
जहां तक फ़ासिस्टों के ख़िलाफ़ संयुक्त मोर्चा बनाने का सवाल है, नात्सी पार्टी के बढ़ते जनाधार और फ़ासीवाद के आसन्न ख़तरे को देखते हुए जर्मनी की कम्युानिस्ट पार्टी ने इस दिशा में कई बार (हिटलर के सत्ता में आने से पहले भी और बाद में भी) ठोस प्रयास किये थे जिसका ज़िक्र ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रसिद्ध नेता रजनी पाम दत्त ने अपनी किताब फ़ाशिज़्म एंड सोशल रेवोल्यूशन में किया है। परन्तु सामाजिक जनवादी नेताओं ने कम्युनिस्ट पार्टी और रेड ट्रेड यूनियन की इस बारंबार अपील की अनदेखी की। ऐसे में साफ़ है कि दोषी सामाजिक जनवादी हुए न कि कम्युनिस्ट। 1935 में कोमिंतर्न की सातवीं कांग्रेस में फ़ासीवाद के बढ़ते ख़तरे के मद्देनज़र मेहनतकशों सहित सभी फ़ासिस्ट-विरोधी ताकतों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की ज़रूरत को विशेष रूप से रेखांकित किया गया था। इसी नीति के तहत फ्रांस, स्पेन, चीन और चिले जैसे कई देशों में ऐसे जनमोर्चे सफलतापूर्वक बनाये भी गये। परन्तु त्रॉत्स्की को इससे भी एतराज़ था क्योंकि उसका कहना था कि सिर्फ़ मेहनतकशों की पार्टियों और संगठनों को ही इस मोर्चे में शामिल करना चाहिए। यदि त्रॉत्स्की की यह संकीर्णतावादी लाइन चीन में लागू की गई होती तो चीन की कम्युनिस्ट पार्टी जापानी साम्राज्यवादी हमले का मुँहतोड़ जवाब नहीं दे पाती और चीनी क्रान्ति आगे नहीं बढ़ पाती। वैसे 1930 के दशक में त्रॉत्स्की के निजी आचरण को देखने से यह साफ़ जाहिर होता है कि संयुक्त मोर्चे की बात उसके लिए जुबानी जमा खर्च से ज़्यादा कुछ नहीं थी। सच तो यह है कि इस पूरे दौर में वह साम्राज्यवाद के एजेंट की भूमिका निभाते हुए विध्वंसक और षडयंत्रकारी गतिविधियों में लिप्त था। यही वह दौर था जब वह चीन में क्रान्ति की असंभाविता की और युद्ध की सूरत में सर्वहारा के राज्य सोवियत संघ की फ़ासीवाद से शिकस्त की न सिर्फ भविष्यवाणियां कर रहा था बल्कि लाल सेना और सोवियत सर्वहारा को स्तालिन के नेतृत्व के खिलाफ़ बग़ावत करने के लिए उकसा रहा था। राजेश त्यागी ने अपने लेख में स्पेन के गृहयुद्ध के बारे में भी सरासर झूठ लिखा है। सच तो यह है कि त्रॉत्स्कीपंथी संगठन पौम (POUM) की विध्वंसक और अराजक कार्रवाइयों के चलते रूस सहित तमाम देशों के कम्युनिस्टों के अकूत बलिदान के बावजूद स्पेन में फ़ासिस्ट-विरोधी मोर्चे की शिकस्त हुई और फ्रांको के नेतृत्व में फ़ासीवाद की जीत हुई।
दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होने में अपनी भूमिका को छिपाने के मक़सद से साम्राज्यवादी अक्सर इसके ठीक पहले सोवियत संघ और जर्मनी के बीच हुए अनाक्रमण समझौते के बारे में जोर-शोर से प्रचार करते हैं। इसमें बिल्कुल आश्चर्य की बात नहीं है कि राजेश त्यागी ने भी स्तालिन पर कीचड़-फेंक अभियान में साम्राज्यवादियों के इसी कुत्सा-प्रचार का सहारा लिया है। लेकिन इस ओछे त्रॉत्स्कीपंथी ने निहायत ही शातिराना ढंग से ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका जैसे साम्राज्यवादी देशों द्वारा फासिस्टों के तुष्टीकरण के लंबे इतिहास को गोल कर दिया और साथ ही साथ अलग-थलग पड़ने के बावजूद फ़ासीवाद के आसन्न ख़तरे से निपटने के लिए सोवियत संघ द्वारा इन पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के साथ मिलकर एक सामूहिक सुरक्षा समझौते को संपन्न कराने के अनथक प्रयासों की कोई चर्चा ही नहीं की। सच तो यह है कि 1917 में बोल्शेविक क्रान्ति के बाद स्थापित सोवियत संघ की सर्वहारा सत्ता साम्राज्यवादियों को फूटे आंख नहीं सुहाती थी। परन्तु प्रत्यक्ष हमलों, घेराव और नाकेबंदी के ज़रिये साम्राज्यावादी उसका बाल भी बांका न कर सके। 1933 में हिटलर के सत्ता में आने के बाद से ही दूसरे विश्वयुद्ध के काले बादल मंडराने शुरू हो चुके थे। ऐसे में पश्चिमी साम्राज्यवादियों की रणनीति हिटलर के तुष्टीकरण करने और उसे उकसाने की थी ताकि वह सोवियत संघ पर हमला कर दे और इस प्रक्रिया में सोवियत संघ का भी ख़ात्मा हो जाये और हिटलर भी कमज़ोर पड़ जायेगा।
1936 में जर्मनी, इटली और जापान का फासिस्ट गठबंधन खुले रूप में अस्तित्व में आया। 1936 में ही इटली ने इथियोपिया पर हमला किया। सोवियत संघ के प्रस्ताव के बावजूद इटली के ख़िलाफ़ कोई कारगर सामूहिक क़दम नहीं उठाया गया। 1938 में नात्सियों ने आस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया पर कब्ज़ा कर लिया। इस प्रकार नात्सी सोवियत संघ की सीमा की ओर तेज़ी से अग्रसर हो रहे थे। ऐसे में फ़ासीवाद के ख़तरे से निपटने के लिए सामूहिक पहल लेने के बजाय पश्चिमी ताकतें हिटलर को सोवियत संघ पर हमला करने के लिए उकसाने में ही लगी हुई थीं। 29-30 सितंबर 1938 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री चैंबरलेन और फ्रेंच प्रधानमंत्री दलादिए ने म्यूनिक में हिटलर और मुसोलिनी के साथ मुलाकात की और प्रसिद्ध 'म्यूनिक समझौते' पर हस्ताक्षर किये जिसके तहत चेकोस्लोवाकिया का विभाजन कर कुछ महत्वपूर्ण इलाके जर्मनी को दे दिये गये। इसके बाद ब्रिटेन और फ्रांस ने अलग-अलग जर्मनी के साथ अनाक्रमण संधि करके उसे सोवियत संघ पर हमले के लिए और उकसाया। यही नहीं स्पेनी गणराज्य को कुचलने में उन्होंने जर्मन और इतालवी आक्रामकों का साथ दिया। 1939 तक आते-आते यह साफ़ हो चुका था कि दूसरा विश्वयुद्ध कभी भी छिड़ सकता है। यह वह परिदृश्य था जिसमें सोवियत संघ को मजबूर होकर अपनी सीमा की सुरक्षा के लिए अगस्त 1939 में जर्मनी के साथ अनाक्रमण समझौता करना पड़ा जिसे मोलोतोव-रिबेनट्रॉप समझौते के नाम से जाना जाता है। वैसे देखा जाय तो यह एक ऐसा कूटनीतिक मास्टरस्ट्रोक था जिसके लिए विश्व सर्वहारा के नेता स्तालिन की प्रशंसा की जानी चाहिए क्योंकि इसके ज़रिये सोवियत संघ ने साम्राज्यवादियों के दोनों धड़ों को आपस में ही लड़ाई में उलझा दिया और युद्ध की तैयारी के लिए बेशकीमती दो वर्ष अर्जित किये। इसकी ताईद ई एच कार और इसाक ड्यूशर जैसे त्रॉत्स्कीपंथी इतिहासकार भी करते हैं। ग़ौरतलब है कि सोवियत सेना ने पोलैंड की सीमा वहां नात्सी हमले के 16 दिनों बाद तब पार की जब एक राज्य के रूप में उसका कोई वजूद नहीं रह गया था और उसने केवल उन्हीं क्षेत्रों काे अपने नियन्त्रण में लिया जो अक्टूबर क्रान्ति के बाद पोलैंड के शासकों ने उससे छीन ली थी। यह भी इतिहास का तथ्य है कि पोलैंड की जनता ने लाल सेना का मुक्तिदाता और नायकों के रूप में स्वागत किया था। लेकिन राजेश त्यागी जैसे छिछोरे त्रॉत्स्कीपंथी को भला वस्तुगत इतिहास से क्या लेना-देना है! उसका एकमात्र ध्येय दुनिया की तमाम समस्याओं के लिए क्रान्तिकारियों को जिम्मेदार ठहराना है! यही वजह है कि वह अपने लेख में यह नहीं बताता है कि हिटलरनुमा फ़ासीवादी दानव को फैसलाकुन शिकस्त स्तालिन के नेतृत्व में लाल सेना के लड़ाकों ने रूसी जनता के साथ मिलकर स्तालिनग्राद की गलियों में अपने बेमिसाल शौर्य, पराक्रम और अकूत कुर्बानियों की बदौलत दी थी। राजेश त्यागी के आका