आज क्यों परेशाँ हो इतने,
माथे पे छलक आयी हैं बूँदें,
आँखों में अग्नि,
कंपकंपाते लब,
तेज़ चलती साँसें,
जोर-जोर से धड़कता हृदय,
क्या डर रहे हो तन्हाई से?
शायद ठेस लगी है अहं को!
कहते हो -
कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा,
जलील किया है तुम्हें.
मैंने तो आज पहली बार ही
सर उठाया है अपना,
पहली बार,
तुम्हारी आँखों में देखकर
कुछ कहा.
इतने बरसो से
घुटती रही मैं,
सहती रही तुम्हारे ताने,
'तुम्हे ये नहीं आता,
तुमने वो नहीं किया....'
लोग हँसते रहे मुंह पर हाथ रख,
तुम बेखबर,
और मैं -
चुपचाप,
अपने आंसू स्वयं ही पोंछती रही.
आज ही तो पहली बार
गर्दन उठा कर कह पायी हूँ,
नहीं जीना चाहती तुम्हारी छत्रछाया में,
नहीं दी जाती अब और
अपने अस्तित्व की बलि,
तुम्हारी खातिर....
तुम कहते हो
जलील कर रही हूँ तुम्हे...
जाने किस बात पर इतना जलील
महसूस कर रहे हो,
शायद,
अपनी पत्नी को
पहली बार
स्वाभिमान से चलते देख
जलील हो रहे हो तुम!