सारा शहर इश्क़ में था, और मैं शहर में,
दिन था आठवें पहर में,
और मैं था दोपहर में…
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चारों ओर फैली थी ख़ामोशी, और मैं ख़बर में,
धूप थी, लू चल रही थी,
और मैं था दोपहर में…
जमघट में हर कोई तत्पर था, और मैं यमुना तट पर था,
दिन जाने को था शाम आने को थी,
और मैं था दोपहर में…
कश्तियाँ किनारे पर खड़ी थी, और मैं था लहरों में,
किरणें तैर रही थी पानी में,
और मैं था दोपहर में…
दुकानें बड़ रही थी, और मैं घाटे में,
मुनाफ़ा था सफ़र में,
और मैं था दोपहर में…
रात दूध जलेबी सी थी, और मैं खट्टे में,
अँधेरा था शजर पे,
और मैं था दोपहर में…
अँधेरा दिन निगलता रहा, और मैं पिघलता,
ख़्वाहिशें थी बिस्तर पे,
और मैं था दोपहर में…