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शाहजहाँ, 1627 ई.-1658 ई. (Shahjahan, 1627 AD-1658 AD)

शाहजहाँ (1627 ई.-1658 ई.)

शाहजहाँ का जन्म 5 जनवरी, 1592 ई को लाहौर में हुआ था। उसके बचपन का नाम खुर्रम था, जिसका अर्थ होता है ‘खुशी प्रदान करने वाला’। उसकी माता मारवाड़ के राजा उदयसिंह की पुत्री जगतगोसाईं थी, जिसका 1585 ई. में सलीम से विवाह हुआ था। जगतगोसाईं को ‘जोधबाई’ और ‘मानबाई’ के नाम से भी जाना जाता है।

शाहजहाँ का लालन-पालन उसकी दादी सुल्ताना बेगम की देखरेख में बड़े लाड़-प्यार में हुआ। अकबर अपने इस पोते को बहुत प्यार करता था और उसने खुर्रम की शिक्षा-दीक्षा का उचित प्रबंध किया। शाहजहाँ का प्रथम शिक्षक मुल्ला कासिम बेग तबरेजी था, जो प्रसिद्ध विद्वान मिर्जा जान तबरेजी का शिष्य था। शाहजहाँ के शिक्षकों में हमीम अली गिलानी और शेख सूफी शेख अबुल खैर का नाम भी महत्त्वपूर्ण है। शाहजहाँ को फारसी साहित्य से विशेष लगाव था, किंतु उसे हिंदी और तुर्की का भी विशेष ज्ञान था। उसकी सैन्य शिक्षा का भी उचित प्रबंध किया गया, जिससे वह धनुष-बाण, तलवार तथा अश्वारोहण में पारंगत हो गया।

शाहजहाँ के राजनीतिक जीवन का आरंभ 1607 ई. में हुआ, जब जहाँगीर ने शहजादा खुसरो के विद्रोह के समय खुर्रम को राजधानी आगरा की देखभाल के लिए नियुक्त किया था। 1607 ई. में पिता जहाँगीर ने शाहजहाँ को 8000 जात और 5000 सवार का मनसब प्रदान किया और अगले वर्ष 1808 ई. में उसे हिसार-फिरोजा की जागीर भी दे दी, जो मुगल परंपरा के अनुसार प्रायः युवराज को ही दी जाती थी।

1610 ई. में खुर्रम का विवाह शाह इस्माइल के वंशज मुजफ्फर हुसैन सफवी की पुत्री से हुआ। 1611 ई. में जहाँगीर ने खुर्रम की पदोन्नति करते हुए उसे 10000 जात और 5000 सवार का मनसब दिया। 1612 ई. में खुर्रम का दूसरा विवाह नूरजहाँ के भाई आसफ खाँ की पुत्री अर्जुमंदबानो बेगम के साथ हुआ, जो कालांतर में ‘मुमताज महल’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। शाहजहाँ का तीसरा विवाह 1617 ई. में अब्दुर्रहीम खानखाना की पोती और शाहनवाज की पुत्री से हुआ था।

शहजादे के रूप में खुर्रम के सैनिक अभियान

कहा जाता है कि जहाँगीरकालीन इतिहास मुख्यतया शहजादे खुर्रम की विजयों का इतिहास है। 1614 ई. में खुर्रम को पहली बार मेवाड़ अभियान के लिए नियुक्त किया गया। खुर्रम ने अपनी वीरता और दूरदर्शिता के द्वारा मेवाड़ को मुगलों की अधीनता स्वीकार करने और संधि करने के लिए विवश किया। मेवाड़ विजय ने खुर्रम को एक योग्य एवं कुशल सेनापति सिद्ध कर दिया।

मेवाड़ विजय के बाद खुर्रम को 6 अक्टूबर, 1616 ई. को दक्षिण अभियान पर भेजा गया और अपनी कूटनीति से अहमदनगर के मलिक अंबर को संधि करने के लिए बाध्य किया। दक्षिण अभियान में खुर्रम की सफलता से प्रसन्न होकर जहाँगीर ने उसे ‘शाहजहाँ’ की उपाधि से सम्मानित किया।

दक्षिण विजय के पश्चात् शहजादा खुर्रम ने काँगड़ा के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया। 1621 ई. में शहजादे खुर्रम को पुनः दक्षिणी अभियान के लिए भेजा गया और इस बार भी उसने मलिक अंबर को संधि करने के लिए विवश किया, जिससे दक्षिण में शांति स्थापित हो गई।

शाहजहाँ का राज्यारोहण (1628 ई.)

शाहजहाँ की सबसे प्रबल शत्रु उसकी सौतेली माँ नूरजहाँ थी, जिसका जहाँगीर पर बहुत प्रभाव था। आरंभ में नूरजहाँ जहाँगीर के बाद खुर्रम को ही बादशाह बनाना चाहती थी। नूरजहाँ गुट का सदस्य होने के कारण 1622 ई. तक शाहजहाँ को राज्य में सम्मान और पद मिलता रहा। किंतु बाद में नूरजहाँ ने अपनी पुत्री लाडली बेगम का विवाह जहाँगीर के छोटे पुत्र शहरयार से कर दिया और शाहजहाँ का पक्ष छोड़कर अपने दामाद शहरयार को बादशाह बनाने का षडयंत्र करने लगी। फलतः नूरजहाँ की स्वार्थपूर्ण नीतियों के कारण खुर्रम ने विद्रोह कर दिया, किंतु उसका विद्रोह असफल हो गया और उसने जहाँगीर से क्षमा माँग ली।

जहाँगीर के पुत्र अन्य पुत्रों- खुसरो और परवेज की मृत्यु हो चुकी थी, जिसके कारण सिहासन के लिए खुर्रम और शहरयार दो ही दावेदार बचे थे। 28 अक्टूबर, 1627 ई. को जहाँगीर की मृत्यु के बाद शहरयार और शाहजहाँ में संघर्ष छिड़ गया। वास्तव में जहाँगीर की मृत्यु के बाद सिंहासन के लिए प्रत्यक्ष रूप में नूरजहाँ तथा आसफ खाँ के बीच युद्ध हुआ क्योंकि दोनों अपने-अपने दामादों को बादशाह बनाना चाहते थे। खुर्रम के लिए सिंहासन को सुरक्षित रखने के लिए उसके ससुर आसफ खाँ ने खुसरो के पुत्र दावरबख्श को कठपुतली बादशाह बना दिया, तो नूरजहाँ ने लाहौर में अपने दामाद शहरयार को बादशाह घोषित कर दिया। अंततः शाहजहाँ के ससुर आसफ खाँ ने अपनी कूटनीति से नूरजहाँ की सारी कार्यवाहियों को विफल कर दिया। उसने लाहौर में शहरयार को बंदी बनाकर अंधा कर दिया और इस प्रकार उत्तराधिकार के प्रश्न पर शाहजहाँ को निर्णायक विजय मिल गई। फरवरी, 1628 ई. में शाहजहाँ बड़ी धूमधाम के साथ आगरा में ‘अबुल मुजफ्फर शहाबुद्दीन मुहम्मद साहिब किरन-ए-सानी’ की उपाधि के साथ मुगल सिंहासन पर आसीन हुआ।

शाहजहाँ ने सर्वप्रथम अपने सहयोगियों एवं स्वामिभक्त सेवकों को उच्च पद तथा विशेष सम्मान प्रदान किया। उसने आसफ खाँ को 8000 जात/7000 सवार का मनसब तथा राज्य के वजीर पद और महाबत खाँ को 7000 जात/7000 सवार का मनसब और ‘खानेखाना’ की उपाधि दी। राज्य में निवास करने वाले विद्वानों, कवियों, ज्योतिषियों आदि के पद भी बढ़ा दिये गये। बेगम नूरजहाँ को किसी भी प्रकार से अपमानित नहीं किया गया और उसे 2 लाख रुपये की प्रतिवर्ष पेंशन दे दी गई।

इस प्रकार राज्यारोहण के समय शाहजहाँ की स्थिति अपने पिता जहाँगीर की स्थिति से अधिक शक्तिशाली थी। शाहजहाँ ने निर्दयतापूर्वक अपने एक भाई और भतीजों को मरवा डाला था, जो खुसरो की तरह षड्यंत्रों का केंद्र बन सकते थे। शाही सेना के योग्य सेनापति उसके पक्ष थे और आसफ खाँ जैसा सर्वश्रेष्ठ राजनीतिज्ञ उसका ससुर था। शाहजहाँ स्वयं एक योग्य सेनापति था और उसे राजपूतों का विशेष रूप से समर्थन प्राप्त था।

शाहजहाँ के समय के विद्रोह

शाहजहाँ को अपने शासनकाल के आरंभ में अनेक विद्रोहों का सामना करना पड़ा, जिनमें दक्षिण के सूबेदार खानेजहाँ लोदी, जुझारसिंह बुंदेला और नूरपुर के जमींदार राजा बासु के विद्रोह अधिक महत्त्वपूर्ण थे।

खानेजहाँ लोदी का विद्रोह (1628-1631 ई.)

खानेजहाँ लोदी का वास्तविक नाम पीर खाँ था। खानेजहाँ जहाँगीर के शासनकाल में एक शक्तिशाली अमीर था और अब्दुर्रहीम खानेखाना के बाद जहाँगीर ने उसे ‘खानेखाना’ या प्रधान सेनापति की उपाधि दी थी। शाहजहाँ के विद्रोह के दमन के बाद खानेजहाँ को गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया गया था। बाद में, नूरजहाँ की सुझाव पर उसे महाबत खाँ के स्थान पर शहजादे परवेज का संरक्षक बनाया गया था। जहाँगीर के अंतिम दिनों में खानेजहाँ दक्षिण का सूबेदार था।

खानेजहाँ अफगान था और अन्य अफगानों की तरह अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के सपने देखा करता था। जहाँगीर की मृत्यु के बाद उसने अहमदनगर के सुल्तान निजामशाह से मित्रता कर ली और बालाघाट का क्षेत्र उसे तीन लाख रुपये में बेंच दिया। इसके बाद उसने मालवा पर आक्रमण कर दिया।

शाहजहाँ के बादशाह घोषित होते ही खानेजहाँ ने आगरा आकर शाहजहाँ को बहुमूल्य मोतियों की माला भेंटकर क्षमा माँग ली। शाहजहाँ ने खानेजहाँ लोदी को क्षमा करके पुनः दक्षिण का सूबेदार नियुक्त कर दिया और निजामशाह के अधिकृत क्षेत्र (बालाघाट) को जीतने का आदेश दिया। किंतु दक्षिण जाकर खानेजहाँ लोदी ने बालाघाट क्षेत्र को अहमदनगर से वापस लेने का कोई प्रयत्न नहीं किया। जब शाहजहाँ को खानेजहाँ के कुकृत्यों की सूचना मिली, तो उसने दक्षिण की सूबेदारी महाबत खाँ को दे दी और खानेजहाँ को दरबार में वापस बुला लिया।

खानेजहाँ लोदी सात-आठ महीने तक मुगल दरबार में पड़ा रहा, किंतु उसे वह सम्मान और प्रतिष्ठा नहीं मिली, जिसकी उसे आशा थी। इस बीच कुछ अमीरों से उसे बंदी बनाये जाने की खबर मिली। जब बादशाह ने उसकी कुछ जागीरों को जब्त कर लिया, तो उसको विश्वास हो गया कि वह बंदी बना लिया जायेगा। शाहजहाँ के आश्वासन के बाद भी वह भयभीत होकर अक्टूबर, 1629 ई. में एक रात अपने सैनिकों के साथ राजधानी से बुंदेलखंड की ओर भाग निकला। शाहजहाँ ने परिस्थिति की गंभीरता को समझते हुए तुरंत ख्वाजा अबुल हसन के नेतृत्व में एक सेना उसके पीछे भेजी।

धौलपुर के निकट शाही सेना ने खानेजहाँ को घेर लिया। यद्यपि खानेजहाँ अपने कुछेक संबंधियों और स्त्रियों को छोड़कर गोंडवाना होता हुआ अहमदनगर भाग गया, किंतु शाही सेना ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। अहमदनगर के मुर्तजा निजामशाह ने खानेजहाँ का स्वागत किया और उसे ‘बीर’ की जागीर देकर उसे मुगलों के आधिपत्य में चली गई अहमदनगर की भूमि को वापस लेने का कार्य सौंपा। इस बीच शाहजहाँ स्वयं भी बुरहानपुर पहुँच गया। बीड के युद्ध में पराजित होने के बाद खानेजहाँ नर्मदा नदी को पार करके बुंदेलखंड में घुस गया, जहाँ जुझारसिंह के पुत्र विक्रमाजीत ने उसके अधिकांश सहयोगियों को मार डाला। खानेजहाँ किसी तरह वहाँ से भी जान बचाकर भागा, किंतु मुजफ्फर खाँ सैयद उसके पीछे लगा रहा। अंत में, बाँदा जिले के ‘सिहोदा’ नामक स्थान पर अंतिम युद्ध में खानेजहाँ को ‘माधवसिंह’ ने मार डाला और उसका सिर काटकर शाहजहाँ के पास भेज दिया। इस प्रकार खानेजहाँ के विद्रोह का अंत हो गया।

जूझारसिंह बुंदेला का विद्रोह (1628-1629 ई.)

शाहजहाँ के काल में दूसरा विद्रोह बुंदेलखंड के जुझारसिंह बुंदेला ने किया, जो वीरसिंह बुंदेला का पुत्र था। वीरसिंहदेव बुंदेला जहाँगीर का परममित्र और कृपापात्र था। उसने 1602 ई. में अबुल फजल की हत्या करके जहाँगीर का साथ दिया था।

1627 ई. में वीरसिंहदेव बंदेला की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी पुत्र जुझारसिंह बुंदेलखंड का शासक बना। जुझारसिंह राज्य का भार अपने पुत्र विक्रमादित्य को सौंपकर 10 अप्रैल, 1628 ई को आगरा चला आया, जहाँ शाहजहाँ ने उसका आदर-सत्कार किया। जुझारसिंह की अनुपस्थिति में विक्रमादित्य ने पुराने शाही अधिकारियों पर अत्याचार किया और जनता से अधिक-से-अधिक मालगुजारी वसूल करना आरंभ कर दिया। विक्रमाजीत के अत्याचारों के विरुद्ध ‘सीताराम’ नामक एक सेवक ने शाहजहाँ से शिकायत की। उसने शाहजहाँ को यह भी बताया कि वीरसिंह बुंदेला ने जहाँगीर की कृपा का लाभ उठाकर बहुत अधिक धन इकट्ठा कर लिया है। शिकायत की गंभीरता को समझते हुए शाहजहाँ ने जुझारसिंह के पिता द्वारा अर्जित संपत्ति की जाँच का आदेश दिया और जाँच होने तक ओरछा की संपत्ति को अपने संरक्षण में लेना चाहा। फलतः जुझारसिंह बुंदेला भयभीत होकर चुपके से आगरा छोड़कर बुंदेलखंड भाग गया और युद्ध की तैयारी में लग गया। जुझारसिंह ने अपने किले का जीर्णोद्धार कराया, गोला-बारूद एकत्र किया और अपनी सैनिक शक्ति को सुदृढ़ किया, जिससे वह शाही सेना का मुकाबला कर सके।

शाहजहाँ ने 1628 ई. में महाबत खाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना जुझारसिंह के विरूद्ध बुंदेलखंड भेजी। मुगल सेनाओं के साथ पहाड़सिंह और भरतसिंह बुंदेला भी भेजे गये। शाहजहाँ स्वयं सेना की गतिविधियों का निरीक्षण करने हेतु आगरा से ग्वालियर पहुँच गया। यद्यपि जुझारसिंह ने बड़ी वीरता से मुगल सेना का सामना किया, किंतु 1629 ई. में उसे पराजित होकर आत्मसमर्पण करना पड़ा। उसने बादशाह को बहुमूल्य भेटें प्रदान कर क्षमा की प्रार्थना की। शाहजहाँ ने जुझारसिंह को क्षमा कर दिया और उसे दो हजार घुड़सवार तथा दो हजार पैदल सैनिक लेकर शाही सेनाओं के साथ दक्षिण भारतीय अभियान पर जाने का आदेश दिया।

जुझारसिंह ने लगभग 5 वर्षों तक बड़ी निष्ठा से बादशाह की सेवा की, किंतु उसके अंदर विद्रोह की आग जलती रही। 1635 ई. में वह महाबत खाँ से अवकाश लेकर अपने पुत्र विक्रमाजीत को दक्षिण में छोड़कर ओरछा लौट आया और अपने पड़ोसी गोंड राज्य गढ़कटंगा पर आक्रमण कर दिया। शाहजहाँ की चेतावनी के बावजूद उसने गोंडवाना की राजधानी ‘चौरागढ़’ पर अधिकार कर लिया और गोंड राजा प्रेमनारायण को मार डाला।

प्रेमनारायण के पुत्र ने जुझारसिंह के विरुद्ध शाहजहाँ से शिकायत की। शाहजहाँ ने तुरंत जुझारसिंह को जीता हुआ राज्य और दस लाख रुपया सम्राट को समर्पित करने का आदेश दिया। जुझारसिंह ने बादशाह के आदेश को मानने से इनकार कर दिया। इसी बीच उसका पुत्र विक्रमाजीत भी भागकर उसके पास आ गया। अतः शाहजहाँ ने अपने पुत्र औरंगजेब को एक बड़ी सेना के साथ जुझारसिंह पर आक्रमण के लिए भेजा। शाही सेना के आने की सूचना मिलते ही जुझारसिंह भयभीत होकर भाग गया और मुगल सेना ने उसके किले पर अधिकार करके भरतसिंह के पुत्र देवीसिंह को गद्दी पर बिठा दिया। जंगल में गोंड़ों ने जूझारसिंह तथा उसके पुत्र विक्रमाजीत का वघ कर दिया और उनके सिरों को शाहजहाँ के पास भेज दिया। जुझारसिंह के दो पुत्र और एक पोते को मुसलमान बना लिया गया और बुंदेला स्त्रियों को हरम या सरदारों की सेवा में भेज दिया गया। ओरछा के कुछ मंदिर भी नष्ट कर दिये गये और कुछ मस्जिदों में परिवर्तित कर दिये गये।

किंतु बुंदेलों ने मुगलों द्वारा नियुक्त देवीसिंह को देशद्रोही बताया और उसे अपना शासक मानने से इनकार कर दिया। महोबा के चंपतराय (वीरसिंह बुंदेला के भाई का पुत्र) ने जुझारसिंह के एक पुत्र पृथ्वीराज  को 1639 ई. में राजा घोषित कर दिया। अंत में, मुगल सेना ने पृथ्वीराज को मार डाला और चंपतराय मुगल मनसबदार बन गया। चंपतराय ने 1661 ई. में औरंगजेब के शासनकाल में विद्रोह किया और मारा गया, किंतु उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र छत्रसाल ने मुगलों का विरोध करते हुए बुंदेलों के स्वतंत्रता संग्राम को जारी रखा।

जगतसिंह का विद्रोह (1640-1642 ई.)

जहाँगीर के समय में राजा बसु  मऊ नूरपुर का जमींदार था, जो मुगल साम्राज्य का स्वामिभक्त सेवक था। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र सूरजमल (1613-18 ई.) उसका उत्तराधिकारी हुआ। किंतु राजद्रोही होने के कारण सूरजमल को हटाकर उसके छोटे भाई जगतसिंह (1619-46 ई.)को जागीरदार बना दिया गया था।

शाहजहाँ के सिंहासन पर बैठने के पश्चात् जगतसिंह ने उसके प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की। शाहजहाँ ने नवंबर, 1634 ई. जगतसिंह को मध्य बंगाल का थानेदार बना दिया और जनवरी, 1637 ई. में उसे काबुल प्रांत से संबंधित कर दिया, जहाँ उसने अहदाद के पुत्र करीमदाद को पकड़ने में सूबेदार की मदद की। फरवरी, 1639 ई. में जगतसिंह लाहौर लौट आया और फिर उसे बंगाल का मुख्याधिकारी बना दिया गया। 1640 ई. में जगतसिंह ने बिना शाही अनुमति के चंबा के राणा को पराजित कर ‘तारागढ़’ नामक दुर्ग का निर्माण करवा लिया। इस अपराध के लिए शाहजहाँ ने जगतसिंह को राजदरबार में उपस्थित होने का आदेश दिया, किंतु जगतसिंह ने उपस्थित होने से इनकार कर दिया। फलतः शाहजहाँ ने जगतसिंह के विरुद्ध एक विशाल सेना भेजी। अंततः दीर्घकालीन संघर्ष के बाद जगतसिंह पराजित हुआ और उसने शाहजहाँ से क्षमा याचना की। शाहजहाँ ने उसे क्षमा कर दिया और नूरपुर की उसकी जमींदारी भी वापस कर दी।

गुजरात का कोलिय विद्रोह

गुजरात के कोलियों ने भी शाहजहाँ के शासनकाल में विद्रोह किया था। 1632 और 1635 ई. के बीच कोलियों की गतिविधियों को प्रबंधित करने के प्रयास में चार वायसराय नियुक्त किये गये और कोली के क्षेत्र में दो गढ़वाली चौकियाँ आज़माबाद



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