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चीन की सभ्यता (Chinese Civilization)

चीन की सभ्यता विश्व की प्राचीन सभ्यता है और संभवतः मिस्र, मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी की सभ्यताओं से भी प्राचीन है। विश्व के अन्य देश जब बर्बरता के अंधेरे में गोते लगा रहे थे, उस समय चीनी सभ्यता की ज्योति विश्व में जगमगा रही थी। वास्तव में, जिस समय रोम शब्द ही नहीं था, यूनान और ईरान का अस्तित्व ही नहीं था और जब अब्राहम ने अपनी महत्त्वपूर्ण यात्रा प्रारंभ की थी, उसके बहुत पहले ही चीनी लोग अपने देश को सभ्य बना चुके थे। आज जबकि मिस्र, मेसोपोटामिया, यूनान व रोमन आदि सभ्यताओं का अस्तित्व समाप्त हो चुका है, वहीं चीन की सभ्यता आज भी जीवित है।

पाश्चात्य विद्वान् मिस्र और बेबीलोनिया की सभ्यता को सबसे पुरानी सभ्यता इसलिए मान लेते हैं, क्योंकि उनको चीन के इतिहास का ज्ञान प्रायः नहीं के बराबर है। अन्य सभ्यताएँ जन्मीं और नष्ट हो गईं, किंतु प्राचीन चीन ने जिस सभ्यता को जन्म दिया, वह कभी नष्ट नहीं हुई। वाल्तेयर ने लिखा है कि चीनी साम्राज्य का शरीर बिना किसी परिवर्तन के चार हजार वर्षों से जीवित है, उसके कानून, परंपराएँ, भाषा और फैशन आज भी वैसे ही हैं। चीन की विचित्रताओं के बारे में एलिस और जॉन ने लिखा है: ‘चीन के नाम से रेशम के कीड़ों, दरियाई भैंसों, पंखों, कागज की लालटेनों और विशाल दीवार का, लकड़ी की तीलियों से चावल खाने वालों, खूबसूरत राजकुमारियों और लंबे गाउन पहने अकड़कर बैठे सम्राटों का चित्रण आँखों के आगे नाचने लगता है। चीन अमेरिका की कल्पना को उत्तेजित करता है, क्योंकि वह इतना रंगीन और पश्चिमी देशों से भिन्न है।’

चीन की सभ्यता की जानकारी से विश्व को अनेक लाभ हुए हैं। विलड्यूरेंट के अनुसार चीन सभ्यता की खोज प्रबुद्धता की एक भारी प्राप्ति है। चीन के लोग एशिया के अन्य लोगों से सभ्यता, कला, बुद्धि, दर्शन और नीति में उच्च हैं, वे जो यूरोप के सभी लोगों से भी इस क्षेत्र में बाजी मार गये हैं। इस सभ्यता का विकास मिस्र, सुमेरिया व भारत की भाँति नदियों की उपजाऊ घाटियों में ही हुआ है। चीन की उपजाऊ भूमि ने उन्हें घुमक्कड़ नहीं बनने दिया। वे तंबुओं में नहीं, अपने घरों में रहते थे। यही कारण है कि उन्हें ‘चालीस शताब्दियों का किसान’ कहा जाता है।

चीन की सभ्यता अपनी सातत्य एवं निरंतरता के कारण विश्व की सभ्यताओं में विशिष्ट है। आज विश्व की अनेक सभ्यताएँ इतिहास के पृष्ठों तक सीमित हो गई हैं, चीन की सभ्यता आज भी जीवित है। चीन की सभ्यता मिस्र, मेसोपोटामिया और यूनान की तरह विभिन्न जातियों और नस्लों के लोगों की नहीं, बल्कि एक ही जाति के लोगों की सभ्यता है, जो एक ही भाषा बोलते और लिखते हैं और यह वही भाषा है, जिसका आविष्कार आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व हुआ था। इस प्रकार चीन की सभ्यता में एक सातत्य है।

चीन की सभ्यता

प्राचीन चीन के निवासी अपने देश को मध्यराज, अधोस्थित राज, तंगजेन, हन जेन इत्यादि नामों से पुकारते थे। आधुनिक नाम ‘चीन’ तृतीय शती ई.पू. में स्थापित ‘चिन’ राजवंश के नाम पर पड़ा है। आज यह एशिया का सर्वाधिक विस्तृत भू-क्षेत्र एवं जनसंख्या वाला देश है और विश्व के विशाल एवं महत्त्वपूर्ण देशों में से एक है। यहाँ हजारों वर्षों से सरकारी इतिहासकार थे, जो घटनाओं का समुचित विवरण लिखते थे। इसीलिए चीन को ‘ऐतिहासिकों का स्वर्ग’ कहा जाता है।

भौगोलिक स्थिति

चीन के उत्तर में सोवियत रूस, मंगोलिया, दक्षिण में हिंदचीन, बर्मा, भारत, पूर्व में कोरिया तथा प्रशांत महासागर, पश्चिम में सोवियत रूस, अफगानिस्तान तथा भारत के पश्चिमोत्तर भाग अवस्थित हैं। पर्वतों, रेगिस्तानों और समुद्रों से घिरी होने के कारण इस सभ्यता ने अपने मौलिक रूपों का समुचित विकास किया। चीन को भौगोलिक दृष्टि से दो भागों में बाँटा जा सकता है- मूल चीन और बहिर्वर्ती प्रांत। इनमें मुख्य (मूल) चीन ही प्राचीन चीनी सभ्यता एवं संस्कृति का प्रधान केंद्र था। इसका संपूर्ण क्षेत्र तीन अजस्रवाहिनी नदियों- ह्वांग हो, यांग्त्से तथा सी क्यांग और उनकी सहायक नदियों से सिंचित है। उत्तरी तथा पश्चिमी पर्वतमालाओं से निकलकर अनेक सहायक नदियाँ को साथ लेकर तीनों नदियाँ प्रशांत महासागर में गिरती हैं। यही तीनों नदियाँ चीन को उत्तरी चीन, मध्य चीन तथा दक्षिणी चीन में विभाजित करती हैं।

चीन की तीनों नदियों में ह्वांग हो सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण नदी है। यह कुनलुन पर्वत श्रृंखला की सरिंग नोर तथा ओरिंग नोर झीलों से निकलकर अंततः पीत सागर में विलीन हो जाती है। इसकी सबसे बड़ी सहायक नदी बी हो नदी है, जो टंगक्वान में इससे मिलती है। लोयस पठार से गुजरते समय यह पठार की पीली मिट्टी को काटकर अपने साथ ले जाती है। इसीलिए इसे ‘पीली नदी’ और इसके द्वारा निर्मित मैदान को ‘पीत मैदान’ कहते हैं। वर्षाकाल में बाढ़ आने से इसका पाट बहुत चौड़ा हो जाता है, जिसके कारण यह नदी अकसर अपनी धारा बदलती रहती है। इस दौरान इसमें भंयकर बाद आ जाती है और समीपवर्ती समस्त बस्तियाँ इसमें समा जाती हैं। इसलिए चीनवासी इसे ‘चीन का शोक’, ‘भटकती नदी’ तथा ‘हजारों अभिशापों की नदी’ जैसे नामों से संबोधित करते हैं। चीनियों ने अपनी बौद्धिक कुशलता का परिचय देते हुए मिट्टी का बाँध बनाया, जिससे नदी की विभीषिका से सुरक्षा हो सके। पीत मैदान विश्व का सबसे बड़ा उपजाऊ क्षेत्र है। इसलिए जहाँ एक ओर ह्वांग हो नदी चीनवासियों के लिए शोक थी, वहीं दूसरी ओर लाभदायक भी सिद्ध हुई। प्राचीन चीनी सभ्यता के सृजन एवं संवर्द्धन में इस नदी की वही भूमिका रही है, जो मिस्र के लिए नील नदी का और मेसोपोटामिया के सृजन में दजला-फरात नदियों का था।

यांगटिसीक्यांग नदी तिब्बती पठार के तंगला श्रेणी से निकलकर चीन सागर में मिल जाती है। यह चीन की सबसे बड़ी नदी है। इसकी कुल लंबाई 5.557 कि.मी. है। इस नदी का बेसिन चीन के 20 प्रतिशत भाग को आच्छादित किये हुए है। कृषि और यातायात के क्षेत्र में इस नदी की बड़ी उपयोगिता रही है। इसके दक्षिण में चीन की तीसरी बड़ी नदी सीक्याँग युन्नान पठार से निकलकर दक्षिणी चीन सागर में गिरती है।

चीन के बहिर्वर्ती मंचूरिया, मंगोलिया, सी क्याँग और तिब्बत हैं। चीनी शासक इन्हें चीन का अविभाज्य अंग मानते हैं और प्रायः इस पर अधिकार करने के लिए प्रयास करते रहते थे। किंतु इन देशों में चीनी सदैव अत्यल्प रहे हैं, और सांस्कृतिक दृष्टि से भी वे कभी पूर्ण चीनी नहीं बन पाये, विशेषकर, तिब्बत का पृथक अस्तित्व एवं भौगोलिक पृष्ठभूमि एक ऐतिहासिक तथ्य रहा है। इतना ही नहीं, चीन के हृास काल में इन्होंने उस पर आक्रमण भी किये। इनमें से कई भाग चीन पर आक्रमण करके अपने को स्वतंत्र करने का सफल प्रयास किये हैं और कुछ ने पूर्ण स्वतंत्र सत्ता प्राप्त भी कर लिया है।

चीन की भौगोलिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में पूर्व में प्रशांत महासागर, दक्षिण एवं पश्चिम में विशाल पर्वतमालाओं एवं रेगिस्तान तथा दक्षिण में हिमालय कराकोरम और पामीर पर्वतमालाओं और पश्चिम में गोबी मरूस्थल से घिरा चीन प्राचीन काल में बाह्य आततायियों से पूर्णतया सुरक्षित रहा है। इसलिए यहाँ विदेशी जातियाँ प्रवेश नहीं हो सका है।

प्रागैतिहासिक काल (Prehistoric Times)

चीनी मानव के जो अवशेष पेंकिंग (चीन की राजधानी) के निकट चोट कोड तिएन गुफा से मिले हैं, पुरातात्त्विक दृष्टि से पूर्व पाषाण काल के हैं। इससे स्पष्ट है कि वहाँ मानव जाति का एक प्रमुख केंद्र था और यहाँ के निवासी ऐतिहासिक चीनी जाति के समान मंगोलिड परिवार के थे। पेकिंग मानव को मंगोल जाति का ही नहीं, विशिष्ट चीनी जाति का पूर्वज बताया गया है। पेकिंग से प्राप्त मानव के दाँत, खोपड़ी और अन्य अस्थि-पंजर पुरा पाषाणकालीन हैं। इसके बाद के काल के पत्थर के औजार और मिट्टी के बर्तन पीली नदी के उत्तर-पश्चिम की पहाड़ियों की तलहटी में मिले हैं और यह श्रृंखला मध्य तथा दक्षिण चीन तक मिलती है। इससे पता चलता है कि पाषाण काल में पेकिंग मानव ने अधिक परिष्कृत पत्थर के उपकरणों तथा मृद्भांडों का निर्माण करना सीख लिया था।

पुरापाषाण काल के पश्चात् चीन में नव-प्रस्तरयुगीन सभ्यता के अवशेष पीली नदी के मध्य मार्ग से मिलते हैं, जिनमें दो स्थल हेनान और शानक्सी विशेष महत्वपूर्ण हैं। हेनान प्रांत के योग शाओं गाँव में नव पाषाणकालीन स्थल का उत्खनन जे.जी. एंडर्सन ने किया था। यहाँ चित्रित मृद्भांड के साक्ष्य मिले हैं, जिसे यांग शाओं के नाम पर ‘यांग शाओं संस्कृति’ नाम से जाना जाता है। दक्षिण शानक्सी के यानपो स्थल की खुदाई में लकड़ी के खंभों और मिट्टी की दीवारवाले घर मिले हैं, जिन पर मिट्टी के गारे से लीपा हुआ फूस का छप्पर था। फर्श मिट्टी से पोते गये थे और मिट्टी का ही प्रयोग चूल्हों, आलमारियों और बैठकों के लिए भी किया गया था। मृद्भांड लाल और भूरी मिट्टी तथा मोटे रेत से बनाये गये थे। इन बर्तनों पर चित्रकारी भी मिली है। प्रागैतिहासिक सभ्यता के अवशेष पूर्वी क्षेत्र के लुंगशान नामक स्थान से मिले हैं। इसीलिए उसे ‘लुंगशान संस्कृति’ कहा जाता है। यहाँ के अवशेषों में तपाई हुई अस्थियाँ प्रमुख हैं, जिनमें दरारें हैं।

इन दोनों नव पाषाणकालीन संस्कृतियों में मुख्यतः बाजरा उगाया जाता था। कहीं-कहीं गेहूँ की फसल भी होती थी। कृषि के अलावा, कुत्ते, सुअर, बकरी, भेड़ तथा अन्य पशु भी पाले जाते थे। तीर और धनुष कमान भी मिले हैं, जिनसे पता चलता है कि चीनियों में शिकार की परंपरा प्रचलित थी। तीरों के अग्रभाग में अस्थियों के फलक लगाने के प्रमाण मिले हैं। प्रमाणों से स्पष्ट है कि लुंगशान संस्कृति यांग शाओं संस्कृति के अंतिम दौर में शुरू हुई और उसके बाद अपने विकास की चरम सीमा तक पहुँची क्योंकि इन दोनों में सातत्य है और दोनों में समान प्रकार के पत्थर के औजार मिले हैं। फिर भी, यांग शाओं संस्कृति की अपेक्षा लुंगशान संस्कृति के उपकरण अधिक परिष्कृत हैं। इन दोनों संस्कृतियों की मृद्भांड कला क्रमशः चित्रित मुद्भांड और कृष्ण मृद्भांड हैं और दोनों संस्कृतियाँ प्रकृत्या चीन की स्वदेशी संस्कृतियाँ प्रतीत होती हैं। ईसापूर्व 3000 में ये दोनों संस्कृतियाँ फलती-फूलती रहीं। इसके बाद लगभग 1000 वर्षों तक चीन की सभ्यता किस प्रकार विकसित हुई, इसका कोई भौतिक या पुरातात्विक प्रमाण नहीं मिलता है।

ऐतिहासिक स्रोत (Historical Sources)

प्राचीन चीन साहित्यिक रचना की दृष्टि से समृद्ध था, किंतु चीनियों ने बाँस की खपच्चियों, रेशमी वस्त्रों पर प्रभूत साहित्य का सृजन किया था, उनका अधिकांश भाग जलवायु और अनवरत चलने वाले युद्धों के कारण नष्ट हो गया है। इसके अलावा, सम्राट शी ह्वांग टी ने भी बहुत से ग्रंथों को नष्ट करवा दिया था। संप्रति चीनी साहित्य का एक अंश मात्र ही उपलब्ध है। इसके अलावा, चीन के विभिन्न ऐतिहासिक पुरास्थलों, विशेशकर हेनान प्रांत से उत्खनन में तमाम पुरातात्त्विक सामग्री प्रकाश में आई है, जो चीनी इतिहास के निर्माण में पर्याप्त सहायक हुई है।

चीन का पौराणिक इतिहास (Mythological History of China)

नवपाषाणकाल की समाप्ति से लेकर ऐतिहासिक शिया राजवंश के उदय के पूर्व तक का चीनी इतिहास पौराणिक काल के अंतर्गत आता है। इस काल के इतिहास के एकमात्र स्रोत पौराणिक आख्यान हैं। चीन के पौराणिक मिथकों के अनुसार चीनी राज्य का जन्मदाता ‘पान कू’ नामक शासक था। कहते हैं कि पान कू दो रहस्यमयी शक्तियों के संयोग से उत्पन्न हुआ था। उसने पृथ्वी और आकाश को पृथक् किया और अठारह हजार वर्षों तक परिश्रम कर रुखानी और मुंगडे से ठोंककर अंतरिक्ष में उड़ते हुए ग्रेनाईट के पत्थरों को चंद्र, पृथ्वी और तारों का रूप दिया। मृत्यु के बाद पान कू का सिर पहाड़ों में परिवर्तित हो गया, उसकी छाती बादल तथा हवा के रूप में और आवाज बिजली तथा मेघो के गर्जना में परिवर्तित हो गई। उसकी धमनियों ने नदियों का रूप धारण कर लिया और नसें छोटी-छोटी पहाड़ियाँ तथा घाटियाँ बन गईं। उसका मांस खेतों में बदल गया और चमड़े व बालों ने पेड़-पौधों का रूप धारण कर लिया। उसका पसीना वर्षा के जल में परिवर्तित हो गया। अंत में, उसके शरीर की ओर जो कीड़े आकृष्ट हुए, उन्होंने मानव का रूप धारण कर लिया। इस प्रकार पान कू ने सृष्टि की रचना की।

तीन अधिपति (सानहुआंग) और पाँच सम्राट (वूती) (Three Sovereigns and Five Emperors, 2852 B.C.E. to 2205 B.C.E)

माना जाता है कि चीन की सभ्यता का प्रथम चरण तीन शासकों का काल है, और दूसरा पाँच शासकों का। इन शासकों ने चीन में 2852 ईसापूर्व से 2205 ईसापूर्व तक शासन किया। शुमाचीन के अनुसार प्रथम तीन शासकों का तात्पर्य तीन शासक समूहों से है, जिनमें पहले समूह में बारह दैवी शासक (तिएन हुआंग), दूसरे में ग्यारह पृथ्वी लोक के शासक (ति हुआंग) और तीसरे समूह में नौ मानवीय शासक (जेन हुआंग) हुए। इन तीन शासक समूहों को वास्तव में स्वर्ग, पृथ्वी और मानव का प्रतीक माना गया है। इनमें से दैवी और स्थलज सम्राटों ने अलग-अलग अठारह हजार वर्ष तक और नौ लौकिक मानव सम्राटों (जेन-हुआंग) ने चार लाख छप्पन हजार वर्ष तक शासन किया था। कुछ इतिहासकार चीन के पौराणिक शासकों में फू सी, नुवा और शेनोंग नामक तीन सम्राटों का उल्लेख करते हैं।

चीनी मिथकों के अनुसार चीन के तीन पौराणिक सम्राटों में फू शी पहला था। चीनी मिथकों के अनुसार उसका धड़ अजगर जैसा और सिर मनुष्य की तरह था। चीनी पांडुलिपियों के अनुसार फू शी ने पशु-जगत् पर विजय प्राप्तकर चीनी सभ्यता की नींव डाली। किंवदंती के अनुसार भूमि एक बड़ी बाढ़ से बह गई थी और केवल फू शी और उसकी बहन नुवा ही बची थी। परमात्मा ने उनके मिलन की स्वीकृति दी और भाई-बहनों ने मानव जाति को जन्म देना शुरू किया।

इस प्रकार फू शी पहला शासक था, जिसने परिवार का निर्माण कर सामूहिक निवास की आधारशिला रखी और मानवता के नियमों को निर्धारित किया। फू शी एक सांस्कृतिक नायक था, जिसने चीनी लोगों को घर बनाना, खाना बनाना, लोहे से बने हथियारों से शिकार करना, जाल से मछली पकड़ना, पशुपालन, संगीत, लेखन-कला और सितार बजाकर गाना सिखाया। उसने शकुन विचार (पाकुआ) के लिए ‘आठ रेखाचित्रों’ का आविष्कार किया, जिनसे कालांतर में चीनी अक्षरों का निर्माण हुआ। उसने नापने की विधि खोज निकाली, जो बाद में पंचाग की आधार बनी।

फू शी की बहन और पत्नी का नाम नु वा था, जो एक चमत्कारी स्त्री थी। एक बार बाढ़ आने पर पानी को सुखाने के लिए उसने नरकुल के सरकंडों की राख का प्रयोग किया था। नुवा को विवाह संस्था को व्यवस्थित करने और आग के आविष्कार का श्रेय दिया गया है। दक्षिण-पश्चिमी चीन में कुछ अल्पसंख्यक नुवा को अपनी देवी मानते हैं।

तीसरे प्रसिद्ध शासक शेनोंग के नाम का अर्थ ही है ‘दिव्य किसान’। शेंनोंग ने चीन के लोगों को खेती, व्याप



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