चालुक्य राजवंश
कदंब राजवंश प्राचीन भारत का एक राजसी ब्राह्मण परिवार था, जिसने चतुर्थ शताब्दी ईस्वी के मध्य से लेकर छठीं शताब्दी ईस्वी के मध्य (लगभग दो सौ वर्ष) तक दक्षिणापथ के दक्षिण-पश्चिम में उत्तरी कर्नाटक और कोंकण पर शासन किया।
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ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि कदंबों के स्वतंत्र राज्य की स्थापना चौथी शताब्दी ईस्वी के मध्य लगभग 345 ईस्वी में मयूरशर्मन नामक ब्राह्मण ने की थी। आरंभिक कदंब शासक पल्लवों की अधीनता स्वीकार करते थे। जब समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ-अभियान के परिणामस्वरूप काँची के पल्लवों की शक्ति कमजोर हो चुकी थी, तो कदंब वंश के मयूरशर्मन ने पल्लवों के विरुद्ध विद्रोह करके कर्नाटक में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। इस नवोदित कदंब राज्य की राजधानी बनवासी (वैजयंती) थी, जो कर्नाटक राज्य के उत्तर कन्नड़ जिले में स्थित है। इस राजवंश के शक्तिशाली शासक काकुस्थवर्मन के शासनकाल में इस वंश के यश और राज्य-सीमा में पर्याप्त वृद्धि हुई, जिससे कदंब राजसत्ता अपने चरम पर पहुँच गई।
कदंब शासकों को प्रायः गंगों, पल्लवों, बाणों और वाकाटकों के साथ-साथ श्रीपर्वत एवं उच्छंगि के कदंबों से भी संघर्ष करना पड़ा। अंततः कदंबों के चालुक्य सामंतों न ही कदंब सत्ता का अंत कर दिया।
कदंबों के पहले कर्नाटक क्षेत्र पर शासन करने वाले मौर्य और सातवाहन इस क्षेत्र के मूलनिवासी नहीं थे। इस दृष्टि से कदंब पहला स्वदेशी राजवंश था, जिसने कन्नड भाषा को प्रशासनिक और राजनीतिक महत्व प्रदान किया था। कन्नड़ भाषा के प्राचीनतम् लेख इसी वंश के मिलते हैं।
ऐतिहासिक स्रोत
कदंब राजवंश के इतिहास-निर्माण में पुरातात्विक स्रोतों की अधिक सहायता मिलती है। तालगुंड, गुडनापुर, चंद्रवल्लि, हलसी, कुंडालूर, सिरसि और हल्मिडी जैसे स्थानों से प्राकृत, संस्कृत और कन्नड़ भाषाओं में कई महत्वपूर्ण लेख मिले हैं, जो कदंब राजवंश के इतिहास-निर्माण में सहायक हैं। तालगुंड शिलालेख से पता चलता है कि मयूरशर्मन तालगुंड (वर्तमान शिमोगा जिले में) का मूल निवासी था और उसका वंश कदंब वृक्ष के नाम पर कदंब कहलाया। इसी लेख से ज्ञात होता है कि किस प्रकार मयूरशर्मन अपने गुरु और दादा वीरशर्मन के साथ वैदिक अध्ययन करने के लिए पल्लवों की राजधानी काँची गया और किस प्रकार कदंब राज्य की स्थापना की। हाल ही में खोजे गये रविवर्मनकालीन गुडनापुर शिला-स्तंभलेख की सत्ताईस पंक्तियों में ब्राह्मी लिपि और संस्कृत भाषा में बनवासी के कदंब शासकों की वंशावली मिलती है। हलसी और हल्मिडी लेख से काकुस्थवर्मन की उपलब्धियों का ज्ञान होता है। 450 ई. के हल्मिडी लेख सबसे पुराना ज्ञात कन्नड़ भाषा का शिलालेख है। इससे पता चलता है कि कन्नड़ को आधिकारिक प्रशासनिक भाषा के रूप में प्रयोग करने वाले कदंब पहले शासक थे। कुंडालूर, सिरसि जैसे कई अभिलेखों से कदंब राजाओं द्वारा ब्राह्मणों और बौद्ध विहारों को दिये जाने वाले अनुदानों की सूचना मिलती है। कदंब राजाओं के लेखों के अलावा, समकालीन राजवंशों, जैसे पल्लवों, गंगों, वकाटकों के लेखों से भी कदंब राजवंश के इतिहास-निर्माण में सहायता मिलती है।
इसके अलावा, कुछ कदंब शासकों के सोने और ताँबे के कुछ सिक्के भी मिले हैं, जिन्हें आमतौर पर पद्मटंक (कमल के सिक्के) के रूप में जाना जाता है क्योंकि उनमें से ज्यादातर के अग्रभाग पर केंद्रीय प्रतीक कमल का अंकन है। कुछ कदंब सिक्कों के अग्रभाग पर कमल के स्थान पर सिंह का भी अंकन मिलता है। इन सिक्कों से भी कदंबों के संबंध में कुछ जानकारी मिलती है।
साहित्यिक स्रोतों में कन्नड़ ग्रंथ ‘ग्राम पद्धति, ‘कावेरी पुराणम्’ और आदि कन्नड़ कवि पम्प की रचनाएँ भी ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं। सुप्रसिद्ध कावेरी पुराणम् में प्रारंभिक कदंब शासकों के नाम मिलते हैं।
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कदंबों की उत्पत्ति एवं मूल निवास-स्थान
कदंब वंश की उत्पत्ति के संबंध में मुख्यतया दो मत प्रचलित हैं- एक मत के अनुसार कदंबों को उत्तर भारतीय मूल का माना जाता है और कहा जाता है कि मयूरशर्मन के पूर्वज हिमालय की तलहटी से पलायन करके दक्षिण भारत गये थे।
दूसरे मत के अनुसार कदंब स्वदेशी कन्नड़ मूल के थे और कदंबू जनजाति से संबंधित थे। संगम साहित्य में कदंबुओं का उल्लेख मिलता है, जो तमिल राज्य के उत्तर-पश्चिमी भागों में निवास करने वाले सामुद्रिक दस्युओं का एक कबीला था। कदंबु लोग भी कदंब वृक्ष की पूजा करते थे। पी.एन. चोपड़ा, एन. सुब्रमण्यम तथा टी.के. रवींद्रन के अनुसार परवर्ती काल के कदंब इन्हीं आदिवासी कदंबुओं के वंशज रहे होंगे।
कुछ इतिहासकार कदंबों को कुरुम्बों अथवा कलभ्रों से भी संबंधित मानते हैं, हालांकि इस मान्यता के लिए कोई प्रमाणिक आधार नहीं है।
दसवीं शताब्दी तथा इसके बाद शासन करने वाले कदंबों की विभिन्न शाखाओं के शासकों के अभिलेखों में कदंबों की उत्पत्ति से संबंधित अनेक काल्पनिक विवरण मिलते हैं।
हंगल, हलसी तथा देगम्बे के कदंब शासकों के कुछ अभिलेखों में वर्णित एक कथानक के अनुसार इस वंश के प्रवर्तक त्रिलोचन कदंब (मयूरवर्मन के पिता) का जन्म भगवान शिव के मस्तक से कदंब वृक्ष के नीचे गिरी पसीने की बूँद से हुआ था, जो तीन नेत्रों तथा चार भुजाओं वाला था।
दूसरी अनुश्रुति के अनुसार मयूरवर्मन स्वयं शिव और भूदेवी (पृथ्वी की देवी) से उत्पन्न हुआ था और उसके मस्तक पर तीसरा नेत्र भी था। अतएव राजमुकुट मस्तक के स्थान पर उसके घुटनों पर बाँधा गया। उसका पालन-पोषण कदंब वृक्ष के नीचे हुआ, इसलिए उसका परिवार कदंब कहलाया।
कन्नड़ ग्रंथ ‘ग्राम पद्धति’ से ज्ञात होता है कि मयूरवर्मन शिव एवं पार्वती का पुत्र था और पवित्र कदंब वृक्ष के नीचे उत्पन्न हुआ था। चूंकि कदंब वृक्ष की छाया में ही उसका पालन-पोषण हुआ, इसलिए उसका परिवार ‘कदंब’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
एक अन्य परंपरा के अनुसार अश्वत्थामा ने शिव से प्रार्थना की, जिसके परिणामस्वरूप कदंब-पुष्पों की वर्षा हुई। इन्हीं कदंब-पुष्पों से मुकण्ण कदंब (त्रिनेत्र कदंब) उत्पन्न हुआ था। महाभारत में इसे ‘बनवास’ कहा गया है। किंतु अधिकांश इतिहासकार मुकण्ण कदंब को ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं मानते हैं।
1077 ईस्वी के एक जैन अभिलेख के अनुसार मयूरवर्मन जैन तीर्थंकर आनंदचिनवृतींद्र की बहन का पुत्र था और वह कदंब वृक्ष के नीचे उत्पन्न हुआ था। जैन आचार्य ने शासनदेवी से उसके लिए एक राज्य की व्यवस्था कराई, जंगलों को कटवाकर भूमि को साफ करवाया और मयूर के पंखों का एक राजमुकुट उसे दिया। मयूरपंखों से निर्मित राजमुकुट को धारण करने के कारण वह ‘मयूरवर्मन’ कहलाया।
1189 ईस्वी के एक शिलालेख में दावा किया गया है कि इस राज्य के संस्थापक कदंब रुद्र का जन्म कदंब के पेड़ों के जंगल में हुआ था। चूंकि उसके अंगों पर ‘मोरपंख’ जैसे प्रतिबिंब थे, इसलिए उसे मयूरवर्मन कहा जाता था।
नागरखंड के कदंबों के एक अभिलेख में कदंबों की उत्पत्ति मगध के नंदों से बताई गई है। इस लेख के अनुसार नंद सम्राट निःसंतान था और पुत्र-प्राप्ति के लिए उसने कैलास पर्वत पर बहुत दिनों तक शिव की उपासना की। एक दिन जब वह निराश होकर लौट रहा था, तो अचानक उसके समक्ष कुछ कदंब पुष्प गिरे और एक अलौकिक वाणी ने उसे आश्वासन दिया कि कदंबकुल नाम के उसके दो प्रतिभाशाली पुत्र उत्पन्न होंगे।
तालगुंड शिलालेख की एक किंवदंती के अनुसार कदंब राजवंश के संस्थापक राजा मयूरशर्मन का अभिषेक ‘युद्ध के छह-मुखवाले देवता स्कंद’ द्वारा किया गया था। कदंब शासक कृष्णवर्मन् प्रथम के एक अभिलेख में उसे नाग वंश से संबंधित बताया गया है।
किंतु कदंबों के प्रारंभिक अभिलेखों से सपष्ट है कि कदंब कुंतल प्रदेश के मूलनिवासी थे और कदंब वृक्ष से संबंधित होने के कारण कदंब कहलाये। शांतिवर्मन के तालगुंड अभिलेख से भी पता चलता है कि पश्चिमी समुद्र के तटवर्ती क्षेत्र में मनव्यगोत्रीय ब्राह्मणों का एक परिवार रहता था, जो स्वयं को हारीतिपुत्र कहते थे। उनके मूलनिवास के समीप स्थित कदंब वृक्ष से उनका घनिष्ठ संबंध था, जो ललितादेवी की पूजा से संबंधित था और जिसे ‘कदंब वनवासिनी’ के नाम से पुकारा जाता था। इसी कदंब वृक्ष के कारण इस राजवंश को कदंब वंश कहा गया है। बनवासी के कदंबों के कुलदेवता मधुकेश्वर (शिव) थे, यद्यपि प्रारंभिक अभिलेखों में उन्हें महासेन (कार्तिकेय) का भी उपासक बताया गया है, जो संभवतः कदंबों के कुलगुरु थे।
परवर्ती कदंब शासक अपने आदि कुल-पुरुष का नाम कदंब बताते हैं, जो संभवतः सातवाहनों का सामंत था। इस कुल-पुरुष ने कदंब नामक वृक्ष-विशेष के नाम पर दक्षिण के बनवास क्षेत्र में दूसरी शताब्दी ईस्वी के मध्य अपने राज्य की स्थापना की और करहाटक (वर्तमान करहद) नगर को अपनी राजधानी बनाया।
इस वंश का दूसरा राजा शिवस्कंद अथवा शिवकोटि अपने भाई शिवायन के साथ जैनाचार्य सामंतभद्र द्वारा जिन् धर्म में दीक्षित हुआ था। शिवस्कंद अथवा शिवकोटि का पुत्र श्रीकंठ और पौत्र शिवस्कंदवर्मन था, जिसके उत्तराधिकारी मयूरवर्मन के समय (तीसरी सदी के उत्तरार्ध) तक कदंब परिवार का एक छोटा-सा राज्य स्थापित हो चुका था, जो अपने-आपको आंध्रों के अधीन मानता था, लेकिन काँची के पल्लवों से भयभीत रहता था।
सुप्रसिद ‘कावेरी पुराणम्’ में प्रारंभिक कदंब शासकों में त्रिनेत्र, मधुकेश्वर, मल्लिनाथ तथा चंद्रवर्मन का नाम मिलता हैं। कदंब राजवंश का वास्तविक संस्थापक तथा सर्वाधिक उल्लेखनीय एवं ऐतिहासिक नरेश मयूरशर्मन (मयूरवर्मन) चंद्रवर्मन का पौत्र था। आरंभिक कदंब संभवतः चुतुस, सातवाहनों और चालुक्यों के अधीनस्थ सामंत थे। किंतु कालांतर में जब उन्होंने राजत्व ग्रहण किया, तो वे अपने को क्षत्रिय (वर्मन) मानने लगे।
वियेना कांग्रेस
कदंब वंश का राजनीतिक इतिहास
मयूरशर्मन (345-365 ईस्वी)
कदंब राजवंश की प्रारंभिक राजनीतिक परिस्थिति की कोई स्पष्ट सूचना नहीं है। फिर भी, ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि कदंब राजवंश का संस्थापक मयूरशर्मन था, जिसका जन्म कर्नाटक राज्य के शिमोगा जिले के तालगुंड (स्थानकुंडरू) नामक गाँव में हुआ था। तालगुंड प्रशस्ति के अनुसार मयूरशर्मन श्रेष्ठ ब्राह्मण ‘द्विजोत्तम’ था और ब्राह्मणोचित कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करता था। शिलालेख के अनुसार मयूरर्शन अपने गुरु और दादा वीरशर्मन के साथ समस्त वेदों (प्रवचन् निखिल) का अध्ययन करने के लिए पल्लवों की राजधानी काँची (पल्लवेंद्रपुरी) गया और वहाँ के एक वैदिक विद्या केंद्र (घटिका) में प्रवेश लिया।
मयूरशर्मन का काँची में एक पल्लव घुड़सवार (अश्व संस्था) से विवाद हुआ, जिसके कारण उसे अपमानित होना पड़ा। जब मयूरशर्मन ने पल्लव नरेश से न्याय की माँग की, तो पल्लवाधिपति ने उसे दुत्कारते हुए अपने सैनिक का अन्यायपूर्वक पक्ष लिया। इस घटना ने मयूरशर्मन के व्यक्तित्व को रोष से भर दिया। आक्रोशित मयूरशर्मन काँची से कुंतल लौट आया और कुशग्रास, यज्ञ-सामग्री तथा समिधा आदि का परित्याग कर समस्त पृथ्वी पर विजय प्राप्त करने की प्रतिज्ञा कर तलवार धारण कर लिया-
तत्र पल्लवाश्वस्थेन कलहेण तीव्रेणरोषितः।
कुशसमिधदृषत्स्त्रगाज्य चरुगृह्णादि दक्षिणे पाणिना।।
मयूरशर्मन ने संभवतः पहला अभियान पल्लवों के सीमांत अधिकारियों (सीमा-रक्षकों) के विरूद्व किया और अपने समर्थकों की सहायता से उन्हें पराजित कर श्रीपर्वत (श्रीशैलम्) के आस-पास के दुर्गम वन्य-क्षेत्र पर अधिकार कर लिया-
योऽन्तपालान्पल्लवेन्द्राणां सहसा विनिजित्य संयुगे।
अध्युपास दुर्गमाटवी-श्रीपर्वत द्वारसंश्रितम्।।
श्रीपर्वत क्षेत्र में मयूरशर्मन ने एक छोटी सेना तैयार की और धीरे-धीरे अपनी शक्ति को सुदृढ़ किया। इसके बाद, उसने पल्लवों के सामंत बाणों तथा कुछ अन्य निकटवर्ती शासकों को पराजित कर उनसे कर एवं उपहारादि प्राप्त किया। मयूरशर्मन को पराजित करने में असमर्थ पल्लव शासक स्कंदवर्मन् ने अंततः उसके समक्ष संधि का प्रस्ताव रखा, जिसे मयूरशर्मन ने स्वीकार कर लिया। संधि के फलस्वरूप मयूरशर्मन पल्लवों के स्वामिभक्त सामंत के रूप में शासन करने लगा। मयूरशर्मन की सेवाओं से प्रसन्न होकर पल्लव शासक ने उसे एक राजमुकुट भेंटकर पश्चिमी समुद्रतट से लेकर प्रेहरा या प्रेमारा (मध्य कर्नाटक में तुंगभद्रा या मलप्रभा घाटी) तक के विशाल क्षेत्र का स्वतंत्र शासक मान लिया। कीलहार्न के अनुसार पल्लव नरेश ने संभवतः उसे अपना प्रमुख दंडनायक बना लिया। जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि मयूरशर्मन ने चौथी शताब्दी ईस्वी के मध्य में कुंतल (कर्नाटक) में अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की और बनवासी को अपनी राजधानी बनाया।
मयूरशर्मन की उपलब्धियों का विवरण उसके चंद्रवल्लि (चित्रदुर्ग जिला, कर्नाटक) के खंडित अभिलेख (जलाशय से संबंधित) में मिलता है। इस अभिलेख में उसे शकस्थान, पारियात्र (विंध्य एवं अरावली की पहाडियों के बीच का क्षेत्र), मौखरि, सेंद्रक (शिमोगा जिला), पल्लव, पुण्णाट (कावेरी एवं कपिनि नदियों का मध्यवर्ती भू-भाग), त्रैकूटक एवं आभीर राज्यों को विजित करने का श्रेय दिया गया है।
सुदूरस्थ शकस्थान, पारियात्र तथा मौखरि राज्यों के विरुद्ध उसकी सफलताएँ असंभावित लगती हैं। अनेक विद्वानों के अनुसार चंद्रवल्लि अभिलेख की प्रामाणिकता संदिग्ध है क्योंकि मयूरशर्मन की उपर्युक्त विजयों का वर्णन न तो तालगुंड प्रशस्ति में मिलता है और न ही बाद के किसी अन्य कदंब अभिलेख में। अभिलेख के पाठों की भिन्नता के कारण काशीप्रसाद जायसवाल का सुझाव है कि मयूरशर्मन की विजयों एवं उसकी राज्य-सीमा को कर्नाटक तक ही केंद्रित माना जाना चाहिए।
इस प्रकार यद्यपि मयूरशर्मन के राज्य की सीमाओं का स्पष्ट ज्ञान नहीं मिलता है, किंतु लगता है कि वह एक शक्तिशाली एवं महान शासक था। परवर्ती कदंब अभिलेखों में उसे अठारह अश्वमेध यज्ञों को संपन्न करने का श्रेय दिया गया है और कहा गया है कि इन यज्ञों के अवसर पर उसने तालगुंड के ब्राह्मणों को 144 ग्राम दान में दिये थे। किंतु तालगुंड प्रशस्ति में इस प्रकार की सूचनाओं का अभाव है, इसलिए उसके द्वारा अश्वमेध यज्ञ संपन्न करने की परवर्