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द्वितीय सरसंघचालक - माधव सदाशिव गोलवलकर

श्री. माधव सदाशिव गोलवलकर




"मेरा रुझान राष्ट्र संगठन कार्य की ओर प्रारम्भ से है। यह कार्य संघ में रहकर अधिक परिणामकारिता से मैं कर सकूंगा, ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए मैंने संघ कार्य में ही स्वयं को समर्पित कर दिया। मुझे लगता है स्वामी विवेकानन्द के तत्वज्ञान और कार्यपद्धत्ति से मेरा यह आचरण सर्वथा सुसंगत है।"       —  माधव सदाशिव गोलवलकर


                      हम भारतीय है, हमारी हजारों वर्ष पुरानी परंपरा है। भारत का निर्माण भारतीय आधार पर ही होगा। चाहे हम कितने ही 'मॉडर्न' क्यों न हो जाएँ। हम अमेरीकी, फ्रेंच, इंग्लिश, जर्मन नहीं कहला सकते, हम भारतीय ही रहेंगे यह 'बोध' जिसे सहस्त्रों नवयुवकों में जगानेवाले राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ में गुरूजी के नाम से विख्यात पूज्य. श्री.माधव सदाशिव गोलवलकर जी ने कराया था।

                      पूज्य. गुरूजी का जीवन एक तपस्वी के समान था। उनके आदर्शों में सबसे प्रमुख त्याग का आदर्श था। उनका मानना था कि सादगी का आदर्श छोड़ने का स्पष्ट अर्थ है, दूसरे सहस्त्रों गरीबों के मुँह की रोटी छीन लेना। उन्होंने अंत तक अपना सादगी का आदर्श नहीं छोड़ा।

                     श्री.गुरूजी का जन्म महाराष्ट्र के रामटेक गाँव में 19 फरवरी 1906 को हुआ था। उनके पिता श्री. सदाशिव रावजी डाक-तार विभाग में कार्यरत थे परन्तु बाद में उनकी नियुक्ति सं। 1908 में शिक्षा विभाग में अध्यापक के पद पर हो गई थी। उनकी माताजी श्रीमती. लक्ष्मीबाईजी को 'ताई' के नाम से ही जाना जाता था। गुरूजी अपने माता-पिता कि चौथी संतान थे और उनका नाम माधव रखा गया था।
                      उनमे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि, ज्ञान की लालसा, असामान्य स्मरण शक्ति जैसे गुणों का विकास हो गया था। जब वे मात्र दो वर्ष के थे, तभी से उनकी शिक्षा प्रारम्भ हो गई थी। उनके पिता जो उन्हें पढ़ाते थे उसे वे सहज ही कण्ठस्थ कर लेते थे। श्री. गुरूजी ने सं. 1919 में 'हाई स्कूल की प्रवेश परीक्षा' में विशेष योग्यता द्वारा छात्रव्रृति प्राप्त की थी। चांदा स्थित 'जुबली हाई स्कूल' से सं. 1922 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। इसके पश्चात नागपुर स्थित 'हिस्लाप कॉलेज' जिसे ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित किया जाता था, यहाँ से विज्ञानं विषय में उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा विशेष योग्यता से उत्तीर्ण की थी। इस परीक्षा में उन्हें अंग्रेज़ी विषय में प्रथम पारितोषिक मिला था।

                       श्री. गोलवलकरजी के जीवन में एक नए दूरगामी परिणाम वाले अध्याय का प्रारम्भ सं. 1924 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश के साथ हुआ था। उन्होंने सं.1928 में एम्. एस-सी की परीक्षाएँ प्राणिविज्ञान विषय में प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की थी। विश्वविद्यालय के अपने चार वर्ष के कालखंड में उन्होंने 'संस्कृत महाकाव्यों, पाश्चात्य दर्शन, श्री. रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद जी की ओजपूर्ण एवं प्रेरक' विचार सम्पदा ' , भिन्न-भिन्न उपासना-पंथों के प्रमुख ग्रंथों तथा शास्त्रीय विषयों के विभिन्न ग्रंथों का आस्थापूर्वक अध्ययन किया था।
                        उन्होंने M. sc.की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात वे प्राणी-शास्त्र विषय में 'मत्स्य जीवन' पर शोध कार्य हेतु मद्रास के मत्स्यालय से जुड़ गए थे। इसी मद्रास प्रवास के दौरान श्री. गुरूजी गंभीर रूप से बीमार पड़  गए थे। जब वे शोध कार्य में व्यस्त थे तो एक बार हैदराबाद का निजाम मत्स्यालय देखने आया। नियमानुसार प्रवेश शुल्क दिए बिना उसे प्रवेश देने से श्री. गुरूजी ने इंकार कर दिया था। अपनी आर्थिक तंगी के कारण सं. 1929 में शोध कार्य अधूरा छोड़ वे नागपुर वापस लौट गई थे।
                      श्री.गुरूजी का स्वास्थ्य नागपुर आने के पश्चात भी ठीक नहीं था। वहीं उनके परिवार की आर्थिक स्थिति भी खस्ता हाल हो गई थी। इसी बीच बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें निर्देशक के पद पर कार्य करने का प्रस्ताव प्राप्त हुआ। इस प्रस्ताव को स्वीकारते हुए उन्होंने 16 अगस्त सं.1931 को प्राणी-शास्त्र विभाग में निर्देशक का पद संभाल लिया था।
                    श्री. माधवरावजी की प्रतिभा से अवगत होने पर विश्वविद्यालय के प्रशासन ने उन्हें बी. ए. के छात्रों को अंग्रेज़ी और राजनीति शास्त्र पढ़ाने का अवसर भी दिया। उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा और योग्यता से छात्रों में लोकप्रियता प्राप्त की और यहीं से श्री.माधवराव गोलवलकरजी को 'गुरूजी' के नाम से ही जाना जाने लगा था।
                 डॉ. हेडगेवारजी ने नागपुर के एक स्वयंसेवक श्री . भैयाजी ढाना को काशी हिन्दू विश्वविदयाल में भेजा था और यही से श्री. गुरूजी संध के सम्पर्क में आ गए। इसके पश्चात उस शाखा के संघचालक भी बन गए।
               नागपुर में सं . 1937 के दौरान श्री . गुरूजी के जीवन में एक नए मोड़ का आरम्भ हो गया था। उन्होने डॉ. हेडगेवारजी  के सान्निध्य में एक अत्यंत प्रेरणादायक राष्ट्र समर्पित व्यक्तित्व को देखा। सं. 1938 के पश्चात संघ कार्य को ही उन्होने अपना जीवन कार्य मान लिया श्री. हेडगेवारजी के साथ निरंतर रहते हुए अपना सारा ध्यान संघ कार्य पर ही केंद्रित किया था।

             श्री. माधव सदाशिव गोलवलकर जी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाहक सं. 1931 में नियुक्त किया गया था। सं. 1940 में डॉ. हेडगेवार जी का ज्वर बढ़ता ही गया और अपना अन्त समय जानकर तब उन्होने उपस्थित कार्यकर्ताओ के सामने श्री.माधव जी को अपने पास बुलाया और कहा-"अब आप ही संघ का कार्य सम्भाले।" इसके पश्चात 21 जून 1940 को हेडगेवार जी अनन्त में विलिन हो गए।
             संघ के सरकार्यवाहक नियुक्त होने के बाद उस दौरान कांग्रेस ने अंग्रेज़ो के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन 9 अगस्त 1942 को बिना शक्ति के ही छेड़ दिया था। श्री. गुरूजी का निर्णय था कि संघ प्रत्यक्ष रूप से तो आंदोलन में भाग नहीं लेगा परंतु स्वयंसेवको को व्यक्तीश: प्रेरित किया जायेगा।
            मुहम्मद अली जिन्हा ने 16 अगस्त 1946 को विभाजन के लिए सीधी कार्यवाही का दिन घोषित कर हिन्दू हत्या का तांडव मचा दिया था। वहीँ श्री. गुरूजी ने अपने प्रत्येक भाषण में देश विभाजन के खिलाफ डट कर खड़े होने के लिए जनता से अवाहन करते रहे, परन्तु कांग्रेसी अखण्ड भारत के लिए लड़ने की मनस्थिति में नहीं थे। इसका मुख्य कारण था, पंडित नेहरू ने स्पष्ट शब्दों में विभाजन को स्वीकार करते हुए 3 जून 1947 को इसकी घोषणा भी कर दी गई थी।
           जब देश में विभाजन हुआ तो संघ के स्वयंसेवकों ने पाकिस्तान वाले भाग से हिन्दुओं को सुरक्षित भारत भेजने का कार्य आरम्भ कर दिया था। इस दौरान संघ के स्वयंसेवकों का अतुलनीय पराक्रम, त्याग और बलिदान की गाथा भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखने लायक है।
           तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री श्री.  सरदार पटेलजी ने जम्मू-कश्मीर रियासत का विलय भारत में करने के लिए उन्होंने रियासत के दीवान मेहरचंद महाजन से कहा था। श्री. महाजन जी के प्रयास से कश्मीर-नरेश और श्री. गुरूजी की भेंट की तिथि निश्चित की गई थी।         
         श्री. माधव सदाशिव गोलवलकर 17 अक्टूबर 1947 को हवाईजहाज से श्रीनगर पहुंचे। उनकी कश्मीर नरेश से 18 अक्टूबर को प्रातः भेंट हुई थी।उस भेंट के समय रियासत के दीवान श्री. मेहरचंद महाजन भी उपस्थित थे। कश्मीर नरेश की बातें सुनने के पश्चात श्री. गुरूजी ने कश्मीर नरेश को समझाते हुए कहा - '' आप हिन्दू राजा है। पाकिस्तान में विलय करने से आपको और आपकी हिन्दू प्रजा को भीषण संकटों से संघर्ष करना होगा। यह ठीक है कि अभी हिंदुस्तान से रेल के रास्ते और हवाई मार्ग का कोई संपर्क नहीं है , किन्तु इन सबका प्रबन्ध शीघ्र ही हो जाएगा। आपका और जम्मू - कश्मीर रियासत का भला इसी में है कि आप हिन्दुस्तान के साथ विलीनीकरण कर लें। ''
          उनकी बातें सुनकर श्री. मेहरचंद महाजन ने कश्मीर नरेश से कहा - '' गुरूजी ठीक कह रहे है। आपको हिन्दुस्तान के साथ रियासत का विलय करना चाहिए। '' आखिरकार कश्मीर नरेश ने श्री. गुरूजी को शाल भेंट की और इस प्रकार जम्मू - कश्मीर के भारत विलय में श्री गुरूजी का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा।  



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