एक छोटे गाँव में, पाकिस्तान के एक बहन-भाई जो अपनी अश्वस्त आर्थिक स्थिति के बावजूद अपने दिमाग का उपयोग करके ईद मनाते थे।
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ईद के दिन, जब दुनिया खुशियों में लिपटी होती थी, तो इस छोटे गाँव के बारे में ऐसा लगता था कि खुशियों का सिर्फ एक ही तरीका है - पैसे खर्च करना। लेकिन यहाँ के बहन-भाई, सारे गाँव के लोगों को दिखाते थे कि ईद को अपने दिमाग के साथ मनाने का भी तरीका होता है।
मोहम्मद और फातिमा, यह बहन-भाई, बेरोजगारी और महंगाई के चलते कई मुश्किलों का सामना कर रहे थे। मोहम्मद को नौकरी नहीं मिल रही थी और फातिमा के पास भी कोई काम नहीं था। लेकिन इन तंगदिली के बावजूद, उनके पास एक विचार था।
वे जानते थे कि उनके पास कम पैसे हैं, लेकिन उनके पास एक-दूसरे के लिए प्यार और समर्थन है। इसी सोच ने उन्हें एक नयी सोच की दिशा में ले जाया।
फिर आया वह दिन, ईद का दिन। गाँव में सभी लोग अपने नये कपड़ों में सज धज कर आए थे, लेकिन मोहम्मद और फातिमा ने कुछ अलग ही सोचा था। वे गाँव के बच्चों को खुश देखना चाहते थे।
मोहम्मद ने अपने दोस्तों की मदद से एक छोटा सा मेला लगाया। वहाँ पर खेल, गाने और साथ ही मिठाई और खाने की चीजें भी थीं। फातिमा ने गाँव की महिलाओं को संगठित किया और उन्हें खास खाने की चीजें बनाने के लिए प्रेरित किया।
जब सब तैयार था, तो मोहम्मद और फातिमा ने गाँव के बच्चों को अपने मेले में बुलाया। बच्चों का चेहरा खिल उठा और वह खुशी-खुशी मेले में उतर आए।
फातिमा ने बच्चों को खाना खिलाया, जबकि मोहम्मद ने उन्हें खेलने के लिए नए खिलौने दिए। सभी बच्चे बहुत खुश थे और उन्होंने अपने दिल की गहराइयों से ईद की खुशियों का आनंद लिया।
गाँव के लोग आश्चर्यचकित थे कि मोहम्मद और फातिमा ने अपनी स्थिति के बावजूद ईद को खुशियों से भर दिया। उन्होंने समझा कि सच्ची खुशियाँ पैसों के बादल में नहीं होती, बल्कि दिलों के साथ होती हैं।
ईद के बाद, गाँव के लोगों ने मोहम्मद और फातिमा को सम्मानित किया, और उन्हें उनके साहस और संघर्ष के लिए सराहा। इस दिन से, गाँव के लोग ने समझा कि खुशी को मनाने के लिए पैसे की जरूरत नहीं होती, बल्कि इच्छा और उत्साह की जरूरत होती है।
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