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अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता : असुर के नाम पर देवी दुर्गा को अपशब्द

विगत दस सालों में जब जब दुर्गापूजा आता है सोशल प्लैटफ़ार्मस पर एक ट्रेंड चलता है । एक समुदाय स्वयं को महिषासुर से जोड़ कर देवी दुर्गा को निर्बाध गालियां निकालता है और कमाल की बात यह है कि यह तब होता है जब कहते हैं कि इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का गला घोटा जा रहा है ....... आदिवासियों को महिषासुर से जोड़ने की शुरुआत जेएनयू से हुई और धीरे धीरे बात यह चारो ओर फैली । आदिवासियों एवं दलितों का धर्मांतरण कराने में जुटी मिशनरियों ने इसे हाथों हाथ लिया एवं महिषासुर को आदिवासियों का नायक बताकर अनेक लेख लिखे गए ..... फेसबुक , व्हाट्स अप्प आदि पर पोस्ट बना कर डाले गए एवं हिंदुओं के प्रति घृणा उत्पन्न करने की घृणित कोशिश की गयी जो अभी भी अनवरत जारी है।
महिषासुर, झारखंड , ओड़ीसा, बंगाल, बस्तर में रहने वाले उरांव , मुंडा, संथाल, खड़िया , हो आदि के पूर्वज थे, यह बात आज से दस वर्ष पूर्व तक किसी को ज्ञात नहीं थी । यह ज्ञान अचानक से जेएनयू में लगभग दस वर्ष पूर्व उत्पन्न हुआ और उसके बाद से देवी दुर्गा को अपशब्द कहने की परंपरा शुरू हुई । जो लोग स्वयं लंबी रेखा नहीं खिच पाते हैं वे दूसरी लंबी रेखा को छोटी करने का प्रयत्न करते हैं ।
झारखंड में गुमला, लातेहार एवं पलामू के इलाके में असुर नामक एक जनजाति रहती है जिनकी संख्या कुछ हज़ार में है । ज़्यादातर लोगों का धर्मांतरण हो चुका है एवं वे ईसाई बन चुके है। कुछ लोग अभी भी बचे है । इसी असुर जन जाति को लोगों ने महिषासुर से जोड़ दिया। जैसा कि हम जानते हैं कि महिषासुर दो शब्दों महिष एवं असुर के जोड़ से बना है । इस महिषासुर के असुर को झारखंड के इसी छोटी सी असुर जनजाति से जोड़ कर यह परिकल्पना स्थापित की गयी कि महिषासुर झारखंड में रहने वाले आदिवासियों के नायक एवं पूर्वज थे जिसे आर्यों ने छल पूर्वक हरा दिया एवं इसके लिए दुर्गा जी का सहारा लिया। तो सारी बात की शुरुआत महज इस बात से हुई कि महिषासुर के असुर एवं झारखंड के इस जन जाति असुर के ध्वनि में समानता है ।
वामपंथी विद्वान सामान्य रूप से यह मानते हैं कि हिन्दू धर्म के देवी देवता सब mythological चरित्र हैं एवं उनका वास्तविक जीवन से कोई संबंध नहीं है वहीं दूसरी ओर वही वामपंथी विद्वान उसी mythological कहानी में से एक चरित्र को उठाकर उसे आदिवासियों का नायक और उसका पूर्वज बना देते हैं। यह सोच का दोहरापन है। अगर कोई चीज अवास्तविक है तो वह अपनी पूर्णता में अवास्तविक होगी । ऐसा नहीं हो सकता है कि दुर्गा जी ऐसे तो अवास्तविक रहेगी लेकिन जब महिषासुर का संदर्भ आए तो उसे वास्तविक बता दे ।
असुर, उरांव, मुंडा, संथाल, हो, खड़िया आदि सब अलग अलग जनजातियाँ हैं सबकी अलग भाषा है, अलग संस्कृति, अलग धार्मिक मान्यताएं है । लेकिन, महिषासुर के संदर्भ में इसे ऐसा पेश किया जा रहा है कि मानो महिषासुर इन सभी के पूर्वज थे।
आइये जानने की कोशिश करें कि असुर का अर्थ क्या है ? असुर शब्द 'असु' अर्थात 'प्राण', और 'र' अर्थात 'वाला' (प्राणवान् अथवा शक्तिमान) से मिलकर बना है। बाद के समय में धीरे-धीरे असुर भौतिक शक्ति का प्रतीक हो गया। ऋग्वेद में 'असुर' वरुण तथा दूसरे देवों के विशेषण रूप में व्यवहृत हुआ है, जिसमें उनके रहस्यमय गुणों का पता लगता है। असुर , सुर का विलोम शब्द नहीं है । असुरों ने लगातार देवों के साथ युद्ध किया और इनमें से कई युद्धों में वे प्राय: विजयी भी होते रहे। उनमें से कुछ ने तो सारे विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित किया। उनके गुरु भृगु के पुत्र शुक्राचार्य थे, जो देवगुरु बृहस्पति के तुल्य ही ज्ञानी और राजनयिक थे।
जब सुर और असुर एक ही स्थान से उत्पन्न हुए एक ही पिता से उत्पन्न हुए तो फिर दोनों अवश्य ही एक ही रेस के होंगे। जबकि आर्यों एवं आदिवासियों का रेस एक नहीं है । असुर देवों के समान या उनसे अधिक ज्ञानी व बलशाली थे फर्क सिर्फ और सिर्फ दोनों के विचारों में था। असुर जहां देह वादी, भोग वादी हो गए वहीं देव आत्मवादी ।
यह बहुत बाद में हुआ कि असुरों को दर्शाने के लिए चित्रकारों ने उन्हें काले रंग से निरूपित किया। काला रंग तम का प्रतीक है अतः तामसिक आसुरी शक्तियों की व्यंजना के लिए काले रंग का प्रयोग बहुत उचित था। सिर्फ इसलिए कि महिषासुर आदि असुरों को चित्रों में काले रंग से दिखाया गया है एवं गुमला के कुछ गाँव में असुर नाम की जन जाति रहती है महिषासुर को आदिवासियों से जोड़ देना ठीक नहीं है। यह आम आदिवासियों को हिन्दू धर्म के खिलाफ खड़ा करने की एक बहुत बड़ी मुहिम है । अगर महिषासुर , गुमला के असुरों के पूर्वज थे तो अन्य असुरों यथा नरकासुर, वकासुर, गयासुर, शंबरासुर, वृत्रासुर और न जाने कितने असुर वीर योद्धा एवं उनके लाखों असुर सैनिकों के वंशज कहाँ हैं । जितने असुर हिन्दू पुरानों में वर्णित हैं उतनी तो शायद गुमला में असुरों की जनसंख्या भी नहीं है ।
सुर , असुर, एवं महिष सभी संस्कृत मूल के शब्द हैं .... जरा कल्पना कीजिये कि कोई आदिवासी आज से न जाने कितने हजारों वर्ष पूर्व अपना नाम संस्कृत में रखता था । यह बात अत्यंत हास्यास्पद लगती है ।
महिषासुर से झारखंड के आदिवासियों का संबंध जोड़ने वाले कुतर्कियों को यह भी बताना चाहिए कि महिषासुर किस वर्ष में पैदा हुए । उनकी जन्मभूमि क्या थी .... ? और दुर्गा जी क्या आठ हाथों वाली स्त्री थी ? अगर वे मानते हैं कि दुर्गा जी एक आठ हाथों वाली स्त्री थी एवं वे शेर पर चढ़कर युद्ध करने आई थी तो महिषासुर के बारे में जो बातें वे कहते हैं मैं वह सब मान लूँगा , लेकिन उन्हें पहले यह स्वीकार करना होगा कि दुर्गा जी एक आठ हाथों वाली स्त्री थी एवं वह शेर पर सवार होकर महिषासुर से युद्ध करने आई थी ? क्योंकि कोई बात सच्ची होगी तो पूर्णता में सच्ची होगी या तो नहीं होगी।
पुराणों के अनुसार देखें तो असुर शैव हुआ करते थे यानि शिव जी को मानने वाले तो सुषमा असुर क्या शैव है क्या वह शिव जी की आराधना करती है । आज कल विभिन्न आदिवासी सोशल प्लैटफ़ार्मस पर आप हिंदुओं के सभी देवी देवताओं को अपशब्द कहते आप देख सकते हैं जिसमे शिव जी भी शामिल हैं ।
आइये इस संदर्भ में वृत्रासुर को भी देखें । वृत्र प्राचीन वैदिक धर्म में एक असुर था जो एक सर्प या अझ़दहा (ड्रैगन) भी था। संस्कृत में वृत्र का अर्थ 'ढकने वाला' होता है। इसका एक अन्य नाम 'अहि' भी था जिसका अर्थ 'साँप' होता है और जो अवस्ताई भाषा में 'अज़ि' और 'अझ़ि' के रूपों में मिलता है। वेदों में वृत्र एक ऐसा अझ़दहा है जो नदियों का मार्ग रोककर सूखा पैदा कर देता है और जिसका वध इन्द्र करते हैं। कुछ वर्णनों में इसके तीन सर दर्शाए गए हैं। अवस्ताई भाषा से यहाँ तात्पर्य ईरान की भाषा से है यानि जिंदावेस्ता की भाषा । इससे क्या यह स्पष्ट नहीं होता है कि वृत्रासुर ईरान का रहने वाला था । लेकिन वृत्रासुर के नाम में भी चूँकि असुर लगा है तो कुछ लोग उसे भी झारखंड के गुमला जिले के असुरों से जोड़ देंगे ।
असुरों के गुरु शुक्राचार्य थे...... महिषासुर को आदिवासियों का पिता बताने वालों को यह भी बताना चाहिए कि वे शुक्राचार्य के बारे में क्या कहते हैं । शुक्राचार्य ने उन्हें किस धर्म की शिक्षा दी थी । शुक्राचार्य की शिक्षा को सुषमा असुर मान रही है या नहीं । अब आप सोच रहे होंगे कि यह सुषमा असुर कौन है तो यह सुषमा असुर दुर्गा जी को गाली देने वाले गिरोह की पोस्टर गर्ल है। सुषमा असुर गुमला की रहने वाली है एवं असुर जनजाति से आती है । इन्हीं को आगे करके महिषासुर का आंदोलन खड़ा किया गया है।
हिन्दू धर्म ग्रन्थों के अनुसार असुरों को दैत्य कहा जाता है। दानव और राक्षस अलग होते हैं। दैत्यों की कश्यप पत्नी दिति से उत्पत्ति हुई। कश्यप ऋषि ने दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका नामक एक पुत्री को जन्म दिया।
श्रीमद्भागवत् के अनुसार इन तीन संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जो कि मरुन्दण कहलाए। कश्यप के ये पुत्र निसंतान रहे। जबकि हिरण्यकश्यप के चार पुत्र हुए ।
दैत्यों के अधिपति हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के बाद विरोचन बने जिनके गुरु शुक्राचार्य और शिव परम ईष्ट थे । असुर जाति के लोग शिव को ही अपना परमेश्वर मानते थे । एक ओर जहां देवताओं के भवन, अस्त्र आदि के निर्माणकर्ता विश्वशकर्मा थे तो दूसरी ओर असुरों के मयदानव।
इंद्र का युद्ध सबसे पहले वृत्तासुर से हुआ था जो पारस्य देश में रहता था। माना जाता है कि ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के कुछ क्षे‍त्रों में असुरों का ही राज था। इंद्र का अंतिम युद्द शम्बासुर के साथ हुआ था। महाबली बलि का राज्य दक्षिणभारत के महाबलीपुरम में था जिसको भगवान विष्णु ने पाताल लोक का राजा बना दिया था।
अब देखिये जब असुर या दैत्य के पिता कश्यप ऋषि थे तो किसी भी दृष्टिकोण से असुरों या दैत्यों के आदिवासियों के पूर्वज होने की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं है क्योंकि दोनों न दो अलग अलग रेस के हैं। जैसा ऊपर लिखा है कि वृतासुर पारस्य देश में रहता था । यह पारस्य देश कुछ और नहीं बल्कि आज का ईरान है।
'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'शोभन' अर्थ में किया गया है और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है। इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है। असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: मेधावी') के नाम से विद्यमान है। यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे। अनंतर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई। फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरंभ किया और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('द एव' के रूप में) अपने धर्म के दानवों के लिए प्रयोग करना शुरू किया। फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इंद्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रोघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था। (ऋक्. १०।१३८।३-४)।
ईरान में रहने वाले पारसी जिनके वंशज आज कल भारत में रहते हैं अहुरमज्दा की आराधना करते थे । जिस प्रकार सिंध को ईरान के लोग हिन्द कहते थे उसी प्रकार से अहुर शब्द असुर हो गया इस प्रकार से असुर से सीधा एवं स्पष्ट संदर्भ ईरान में निवास करने वाले अहुर मज्दा के मानने वालों से था ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि किसी भी दृष्टिकोण से असुरों का संबंध आज के भारत में निवास करने वाले आदिवासियों से कतई नहीं स्थापित होता है। यह टीवी सीरियल बनाने वालों की कारस्तानी थी जिहोने असुरों को दर्शाने के लिए उन्हें काले रंग से रंग कर दिखाया। शायद इसी का असर हुआ कि लोगों को यह भ्रम हुआ कि असुर आदिवासी थे।
दूसरी एक और बात महत्वपूर्ण है कि क्या हम इस तरह के इतिहास से कोई चरित्र उठाकर एक दूसरे को गाली देकर आगे बढ़ने की कल्पना कर सकते हैं। क्या आदिवासियों के लिए उनकी भूख, अशिक्षा, पिछड़ापन अधिक ज्वलंत विषय नहीं होना चाहिए। प्रत्येक दिन आदिवासियों का व्यापक पैमाने पर धर्मांतरण हो रहा है आदिवसीयत का नाश हो रहा है । जोहार कहने वाले लोग जय ईशु कहकर आदिवासियत की बात कर रहे है ।
क्या इतिहास के गर्भ से कोई भी बात सही या गलत निकाल कर घृणा फैलाना उपयुक्त हो सकता है ? क्या इस तरह से कोई भी समाज प्रगति की ओर बढ़ सकता है ।? मैं अपनी इस बात पर पुनः ज़ोर देकर कहता हूँ कि यह एक बहुत ही बड़ा एवं भयानक षड्यंत्र है जिसके द्वारा आदिवासियों एवं दलितों के मन में हिन्दू धर्म के प्रति घृणा उत्पन्न करने की कोशिश की जा रही है । ऐसा करने वाले जानते हैं कि ऐसा करके वे हिन्दू समाज को कमजोर कर सकते हैं और एक बार यह समाज कमजोर हो गया तो फिर इन्हीं दलितों एवं आदिवासियों को वे आसानी से धर्मांतरित कर सकते हैं।
मैं वैसे तो बहुत धार्मिक नहीं हूँ लेकिन बिना जाने बुझे या फिर सोच विचार कर षड्यंत्र के तहत कोई किसी के धार्मिक विश्वास को गाली दे तो मुझे बुरा लगया है ..... मेरा मानना है आपको कोई बात नहीं माननी है मत मानिए ..... उससे किनारा कीजिये ..... लेकिन उसे गाली देना तो सर्वथा अनुचित है ........ आप गाली इसलिए दे रहे हैं कि हिन्दू हद दर्जे तक सहिष्णु समुदाय है और धर्म के नाम पर लाख दो लाख की संख्या में सड़कों पर नहीं उतरता है ..... घृणा किसी भी बात का हल नहीं है। प्रेम करना सीखिये ।
(आप सभी को महा अष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें । ईश्वर इस दशहरा हम सबको सद्बुद्धि दे )
नीरज कुमार
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