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पहले दशहरे के बाद से ही दिवाली की साफ-सफाई करते वक्त हम सोचने लग जाते थे कि इस बार की दिवाली में घर की सजावट हेतु कौन कौन सी नई चीज खरीदें। नए दिवान सेट से लेकर बंदरवार और पैर पोस तक। सोचते अभी भी है। लेकिन फर्क ये आया है कि पहले ये चीजे खरीदते वक्त मन में एक उमंग रहती थी। वो उमंग अब नदारद है। क्योंकि अब नया सामान खरीदते वक्त या घर की सजावट करते वक्त मन में आता है कि इतनी सजावट करके क्या फायदा? आजकल पहले जैसे तो कोई आता-जाता नहीं! पहले की और अभी की दिवाली में मैं ने सबसे बड़ा जो फर्क महसूस किया वो यहीं है कि अब एकदम करीबी रिश्तेदारों और दोस्तो के अलावा दिवाली में लोगों का एक-दूसरे के घर जाना-आना बंद हो गया है। दिवाली के निमित्त से जो घरों में लोगों का जाना-आना था उसी से दिवाली की रौनक थी...दिवाली का असली मजा उसी से आता था!
पहले दिवाली का आना-जाना इतना ज्यादा था कि चाह कर भी किसी के यहां ज्यादा देर नहीं रुक सकते थे। ऐसे में ऐसा होता था कि जिस व्यक्ति से अच्छे संबंध है उसके यहां ज्यादा देर रुक जाओ और जिसके साथ कामचलाऊ संबंध है उसे दस मिनट में ही निपटा दो! मेरे यहां दो-तीन साल पहले तक दो महिलाएं साथ में आती थी। वे लोग हॉल में आकर सोफे पर ठीक से बैठती भी नहीं थी कि बोलती थी कि अच्छा अब चलते है...बहुत घरों में जाना है! सच में उस वक्त बहुत ख़राब लगता था। आई हो तो कम से कम दस मिनट तो बैठो! मैं मन ही मन बड़बड़ाती थी कि तुम्हें यदि दिवाली के पैर पड़ने की रस्म अदायगी ही करनी है तो मेरे घर के पास के चौराहे पर से एक मिस कॉल कर दिया करो...मैं गेट पर खड़ी रहूंगी...तुम लोग पैर पड़ लेना और चली जाना! लेकिन अब हमारे यहां अग्रसेन भवन में दिवाली मिलन का कार्यक्रम शुरू होने से ऐसे लोग जो रस्म अदायगी के लिए आते थे उनका आना बंद हो गया। इसका परिणाम ये हुआ कि अब मुझे लगता है कि ऐसी रस्म अदायगी ही सही लेकिन घरों में आना-जाना तो था। अब दिवाली सूनी-सूनी लगती है!
पहले जब घरों में आना जाना होता था तो उस निमित्त से चार चीजें देखने मिलती थी। किसने रंगोली अच्छी बनाई...किसने अपने घर को अच्छे से सजाया है...कौन सी चीज कहां पर रखने से ज्यादा सुंदर दिखती है...ड्राइंग रूम की सेटिंग कैसे करना सही रहता है...ये सब बाते बिना गूगल के और बिना इंटीरियर डेकोरेटर के इंसान सीख जाता था। थोड़ा-थोड़ा ही सही एक-दूसरे के यहां नाश्ता करने का रिवाज था। इससे किसको कौन सी मिठाई या किसको कौन सा नमकीन बनाना अच्छे से आता है पता चलता था। बनानेवाले को अपनी तारीफ़ सुनकर सुकून मिलता था और खाने वाला कई बार रेसिपी पूछकर बनाना सीखता था। अभी भी दिवाली पर सभी घरों में व्यंजन बनते है लेकिन वो व्यंजन खाकर तारीफ़ करने वाले नदारद रहने से दिवाली फीकी लगती है। दिवाली के नाम पर जो मिठाई करीबी रिश्तेदारों में दी जाती है वो भी आजकल बाजार की रेडिमेड मिठाई या सूखे मेवे दिए जाते है। जो मजा घर में बनी मिठाई का होता था वो मजा बाजार की मिठाई में नहीं मिलता।
असलियत यह है कि आजकल वास्तविक दिवाली सोशल मीडिया पर ही मनाई जाती है। धनतेरस से ही आकर्षक रंगों से सजे एवं शब्दों को कलाकारी बताते दिवाली के शुभकामना संदेश, वीडियोज सोशल मीडिया पर शेयर किए जाते है। मिठाइयों की आकर्षक फोटो भी सोशल मीडिया पर ही भेजी जाती है। जिसकी सुंदरता सिर्फ़ महसूस की जा सकती है। ऐसी मिठाई किस काम की जो सिर्फ़ देखने को मिले खाने को नहीं! वैसे भी आज का दौर आभासी दुनिया का है...इसलिए सोशल मीडिया पर आई हुई मिठाइयों के दर्शन कीजिए और खुश हो जाइए!
दोस्तों, कभी कभी मुझे लगता है कि घर का समाज से रिश्ता ही टूट गया है। हमें स्वीकार करना होगा कि अब हमारे बचपन वाले घर नहीं रहे। मेट्रो युग में समाज और घर के बीच के तार टूट चुके है। अब घर सिर्फ़ और सिर्फ़ महल या बंगला हो गया है। क्योंकि अब कोई भी शुभ मांगलिक कार्य मैरिज हॉल में होते है...डेस्टिनेशन वेडिंग का जमाना है...बर्थ डे मैकडोनाल्ड या पिज्जा हट में मनाया जाता है...किटी पार्टी भी होटल में होने लगी है। बीमारी में सिर्फ़ हॉस्पिटल या नर्सिंग होम में ही खैरियत पूछी जाती है और अंतिम यात्रा के लिए भी ज्यादातर लोग सीधे श्मशान घाट पहूंच जाते है। मतलब ये कि घर का समाज से संबंध टूटता जा रहा है।
आइए इस दिवाली इस बात पर विचार करें...हम फ़िर से पुराने जमाने की दिवाली मनाएं...पुराने जमाने की तरह अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को घर बुलाकर... खुद भी उनके यहां जाए...काश, हम फ़िर से पुराने जमाने की दिवाली मनाएं...
दोस्तों, ये मेरे अपने विचार है, जरूरी नहीं कि आप इससे सहमत ही हो। वैसे क्या आपको भी पहले की दिवाली और आज की दिवाली में ये फर्क महसूस होता है? आपकी क्या राय है टिप्पणी के मार्फत जरूर बताइएगा।
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