माँ, तुम तो कहती थी कि दूसरे घर जा रही हो...लेकिन चिंता नहीं करना। वो घर भी तुम्हारा अपना होगा। सिर्फ़ चेहरे बदल जायेंगे पर रिश्तों के मायने नहीं बदलेंगे। यहां माँ हैं वहां सासू माँ होगी, यहां बहन हैं वहां नणंद होगी, यहां भाई हैं वहां देवर-जेठ होंगे...। जैसे यहां रह रही हो वैसे ही वहां रहोगी। वहां पर कोई भी पराया नहीं होगा। सभी तेरे अपने होंगे। तुम भी अपना सर्वस्व न्यौछावर कर कर सभी को अपने प्यार से बांध लेना। आपकी इन्हीं बातों की, पल्ले में गांठ बांध कर मैं ससुराल आई थी। आपकी नसीहतें मान कर मैं ने तुलसी, पार्वती और ईशिता बनने की कवायत शुरु कर दी थी। जीन्स को तिलांजली देकर सर पर आंचल इस तरह रखती जैसे सुरज बडजात्या जी ने मुझे सलमान के साथ सात जन्मों के लिए साइन किया हो...! आखिरकार ये मेरा अपना घर हैं! लेकिन कुछ ही दिनों में मेरा यह भ्रम बुरी तरह टूट गया। इस दिल के इतने टुकड़े हुए कि मैं उन टुकड़ों को समेट भी नहीं सकती। आज मैं आपसे पूछना चाहती हूं कि क्यूँ नहीं माँ मेरा ससुराल मायके की तरह...??
• सासू माँ भी तो मेरी माँ ही हैं न? फ़िर जिस स्नेह और प्यार से मैं आपकी गोद में सर रख कर लेट जाती हूं, उसी स्नेह और प्यार से मैं सासू माँ की गोद में क्यों नहीं लेट सकती?
• जैसे आपको मेरी हर पसंद-नापसंद मालूम थी...सासू माँ को मेरी पसंद-नापसंद क्यों नहीं पता? सासू माँ ने आज तक एक बार भी क्यों नहीं कहा कि आज तेरी पसंद की सब्जी बना लें?
• जिस अधिकार से मैं भाई को कोई भी काम निसंकोच बता देती थी, देवर जी को कोई काम बताते वक्त मुझे संकोच क्यूँ होता हैं?
क्यूँ नहीं माँ मेरा ससुराल मायके की तरह...??
• जैसे मायके में थोड़ा सा भी काम करने पर आप सभी को मेरी फ़िक्र होती थी। मुझसे झट से कहा जाता, ''तू बहुत थक गई होगी...जा, थोड़ी देर आराम कर ले।'' ससुराल में मेरे दिन भर बिना एक मिनट का ब्रेक लिए काम करने पर भी कोई क्यूँ नहीं कहता, ''तू बहुत थक गई होगी...जा, थोड़ी देर आराम कर ले।''
• रसोई में काम करते-करते जब मैं ने अपनी सुविधानुसार सामान थोड़ा सा इधर-उधर रख दिया तो सासू माँ और दीदी ने ताना मार दिया कि रसोईघर की व्यवस्था बदलने की कोशिश भी नहीं करना, ये तुम्हारे पिता का घर नहीं हैं! रसोई में दिन भर काम मुझे करना हैं तो फ़िर मैं रसोई के सामान की व्यवस्था अपनी सुविधानुसार क्यों नहीं कर सकती?
• मुझे बोतल के जिन्न के समान क्यूं समझा जाता हैं जिसे हर किसी के हुक्म का सर झुका कर पालन करना हैं। मुझे चौबिसों घंटे यहीं वाक्य क्यूँ दोहराना पड़ता हैं, ''जो हुक्म मेरे आका!!'' नहीं तो हर कोई मुझे भला-बुरा कहने तैयार ही क्यूँ बैठा रहता हैं?
क्यूँ नहीं माँ मेरा ससुराल मायके की तरह...??
• यदि मैं जरुरत की चीजें भी ख़रीदती हूं तो भी मुझ पर फ़िज़ूलखर्ची का आरोप क्यूं लगता हैं?
• मायके में मैं जब ऑफ़िस से घर आती थी तो आप मुझे चाय बना कर देती थी। ससुराल में किसी ने भी आज तक एक कप चाय बना कर क्यूं नहीं दी माँ?
• मायके में मुझे थोड़ा सा बुखार आने पर आप सब कैसे चिंताग्रस्त हो जाते थे? यहां पर यदि तेज बुखार में मैं एक वक्त का खाना न बना पाऊं, तो मुझ पर यह आरोप क्यों लगता है कि मैं बीमार होने का नाटक कर रहीं हूं? मेरी तकलीफ़ एवं मेरा दर्द यहां पर कोई क्यूँ नहीं समझता?
क्यूँ नहीं माँ मेरा ससुराल मायके की तरह...??
• जब मुझे देखने आए थे तब सासू माँ ने कहा था ''यह हमारी बहू नहीं, बेटी जैसी ही हैं! हम इसे हमारे बेटी जैसा ही प्यार देंगे!'' माँ, क्या बहू होना बहुत-बहुत बुरा होता हैं? यदि नहीं तो ससुराल वाले ऐसा क्यूँ कहते हैं कि बेटी जैसा प्यार देंगे? प्यार कभी भी बहू जैसा क्यूँ नहीं होता? यदि बहू जैसा प्यार होता हैं तो वो देने लायक क्यूं नहीं होता?
• जब सात फेरे लेते ही मैं ‘बहू’ शब्द की जिम्मेदारियों से बंध गई तो मैं बेटी समान कैसे हुई?
• मैं हर तरह का समझौता सिर्फ़ इसलिए क्यों करूँ कि मैं एक बहू हूं? समझौते के नाम पर हर बार मुझे अपनी इच्छाओं का गला क्यों घोटना पड़ता हैं?
क्यूँ नहीं माँ मेरा ससुराल मायके की तरह...??
हमारे रितीरिवाज और परंपरायें बहुत अच्छे हैं लेकिन एक बेटी द्वारा पूछे गए इन सवालों के आगे अभी बहुत कच्चे हैं कि क्यूँ नहीं माँ मेरा ससुराल मायके की तरह...??
हमारे रितीरिवाज और परंपरायें बहुत अच्छे हैं लेकिन एक बेटी द्वारा पूछे गए इन सवालों के आगे अभी बहुत कच्चे हैं कि क्यूँ नहीं माँ मेरा ससुराल मायके की तरह...??
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