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तेरियां ठंढियां छावां

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एक पंजाबी लोकगीत की कड़ी है जिसमें युवती का सैनिक पति दूर किसी छावनी में है और अपनी प्रियतमा को पत्र नहीं लिखता.वह उसे संबोधित कर कहती है....

पिप्पला ! वे मेरे पेके पिंड दिआ
तेरियां ठंढियां छावां
तेरी ढाव दा मैला पानी
उतों दूर हटावां
लच्छी बनतो सौहरे गइयां
किह्नूं आख सुणावां ?

‘ओ मेरे नैहर के पीपल,कितनी ठंढी है तेरी छाया ? तेरी पुखरी का पानी मैला है,ऊपर से काई हटाऊं.लच्छी और बनतो ससुराल गयीं,किसे अपना हाल सुनाऊं?

लोकगीतों और ग्राम्यगीतों में मानव समाज का वृक्षों के साथ संबंधों का अद्भुत संसार दिखता है.पेड़ – पौधों का मानव जीवन से अटूट संबंध रहा है.सभ्यता के आरंभ से लेकर इसके विकास तक पेड़-पौधे मानव जीवन के सहगामी रहे हैं.सभ्यता का कोई भी चरण ऐसा नहीं रहा जहां पेड़ – पौधों की आवश्यकता महसूस न की गयी हो.

सामाजिक दृष्टि से भी पेड़ – पौधों का मनुष्य के जीवन में प्रमुख स्थान रहा है.भारत में वृक्ष लगाना सदैव से पुण्य का कार्य माना गया है.पवित्र पीपल की छाया में गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई. बौद्धों की असंख्य पीढ़ियां इस पवित्र बोधि वृक्ष की करती आ रही है.

तिब्बत की जनश्रुति के अनुसार जिस समय किसी लामा का जन्म होता है,तब उस जन्मस्थान के आसपास सारे मुरझाए हुए वृक्षों में नया जीवन आ जाता है.उनमें मुस्कुराती हुई कोमल पत्तियां फूटने लगती हैं,जिससे मालूम होता है कि किसी महापुरुष का जन्म हुआ है.

बिहार के धरहरा गांव में पर बेटियों के जन्म पर पांच फलदार वृक्ष लगाने की परंपरा है जो वर्षों से चली आ रही है.भारतीय संस्कृति में शीतल छाया के लिए पीपल और बरगद के वृक्ष लगाना पुण्य का कार्य माना गया है.बरगद अखिल विश्व का प्रतीक है और उसकी छाया में पलभर बैठने का सुयोग ही सुखी जीवन का प्रतिरूप है.कदंब,करील,गूलर,बरगद आदि ब्रज की संस्कृति और प्रकृति के अभिन्न अंग हैं.

धार्मिक कथाओं और लोकगीतों में वृक्षों का उल्लेख होने से वे धर्म का अंग बन गए हैं.कई वृक्ष हिंदु धर्म के आस्था के प्रतीक माने गए हैं.बरगद,पीपल,आंवला जैसे कई वृक्ष उनके सामाजिक,धार्मिक जीवन के अभिन्न अंग हैं तो जनजातीय समुदाय ने भी कुछ वृक्षों को टोटम (गोत्र,वंश प्रतीक) मान कर उनके काटने की मनाही की है.

स्कूल के दिनों में सुभद्रा कुमारी चौहान की यह कविता सबको बहुत प्रिय थी .......

यह कदंब का पेड़ अगर मां होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे धीरे

भारत की लगभग सभी भाषाओँ में वृक्षों के संबंध में अनेक साहित्यकारों, कथाकारों की कहानी के केंद्रीय पात्र वृक्ष रहे हैं.डॉ. राही मासूम रजा द्वारा लिखित ‘नीम का पेड़’ काफी चर्चित रहा था और पर दूरदर्शन द्वारा एक धारावाहिक का निर्माण भी हुआ था.

एक कहानी में कथाकार कहता है कि उसके आंगन में एक पुराना वृक्ष था जिससे उसके वृद्ध पिता की भावनाएं जुड़ी थी.सुबह-शाम उस वृक्ष की छाया में बैठने से उन्हें असीम आनंद की प्राप्ति होती थी.मकान के विस्तार में वह पेड़ बाधक था.अंततोगत्वा उस पेड़ को काटे जाने का निर्णय हुआ.इधर पेड़ का काटना शुरू हुआ,उधर उनके वृद्ध पिता की तबियत गिरनी शुरू हुई.जिस समय पेड़ धराशायी हुआ उनके पिता निष्प्राण हो चुके थे.

अनेक लोकगीत ऐसे मिलते हैं जिनमें वृक्ष मनुष्य की भावनाओं के आलंबन मात्र हैं.वे मनुष्य के सुख या दुःख  के प्रतीक बन जाते हैं.कभी – कभी वे सजीव मान लिए जाते हैं. उत्तर प्रदेश के एक मधुर लोकगीत की कड़ी है.......

बाबा निबिया के पेड़ जिनि काटेउ
निबिया चिरइया के बसेर, बलइया लेउ बीरन की
बाबा सगरी चिरइया उड़ी जैइहैं
रहि जयिहैं निबिया अकेल, बलइया लेउ बीरन की
बाबा बिटिया के दुख जिन देहु
बिटिया चिरईया की नायि, बलइया लेहु बीरन की
बाबा सबरी बिटीवा जैहें सासुर
रह जाई माई अकेल, बलइया लेहु बीरन की

(हे बाबा ! यह नीम का पेड़ मत काटना. इस पर चिड़िया बसेरा करती हैं. बीरन ! मैं बालाएं लेती हूं. हे बाबा ! बेटियों को कभी कोई कष्ट नहीं देना. बेटी और चिड़िया एक जैसी हैं. बीरन ! मैं बलाएं लेती हूं.सब चिड़िया उड़ जाएंगी ! नीम अकेली रह जाएगी. बीरन ! मैं बलाएं लेती हूं. सब बेटियां अपनी-अपनी ससुराल चली जाएंगी. मां अकेली रह जाएगी. बीरन ! मैं बलाएं लेती हूं.)

बिहार के भोजपुरी के लोकगीतों में भी वृक्षों का बहुत सुंदर वर्णन मिलता है.भोजपुरी विवाह गीत के इस बोल में गंगा-यमुना के किनारे उगे हुए पीपल को कितना महत्त्व दिया गया है.कोई कन्या अपने भावी पति की कल्पना करते हुए कहती है ......

तर बहे गंगा से यमुना ऊपर मधु पीपरि हो ...

एक उड़िया लोकगीत में ससुराल से लौट कर आती हुई युवती पीहर की अमराई का चित्र अंकित करते हुए कहती है.......

कुआंक मेलन आम्ब
तोटा रे बोउ लो
झियंक मेलन बोप
कोठा रे बोउ लो

(कागों का मिलन-स्थल है अमराई,ओरी मां ! कन्याओं का मिलन स्थल है बाबुल का घर, ओ री मां !)

हिंदी फिल्मों के गीतों में भी गीतकारों ने हमारे जीवन में पेड़-पौधों के महत्त्व को दर्शाते हुए कई गीत लिखे हैं.

बढ़ता शहरीकरण और औद्योगिक विस्तार के कारण वृक्षों के अस्तित्व पर भले ही खतरा मंडरा रहा हो लेकिन हमारी पीढ़ियों ने मानव समाज के साथ वृक्षों के अटूट संबंधों को लोकश्रुतियों, जनश्रुतियों,लोकगीतों के रूप में जिंदा रखा है.

पड़ोस में बज रहे रेडियो से धीमी-धीमी आती जसपिंदर नरूला की खनकती आवाज आप भी सुन पा रहे हैं न.........

पीपल के पतवा पे लिख दी दिल के बात 


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