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वाया सराय रोहिल्‍ला

‘हमने युद्ध शुरू करने के लिए अंधेरा इसलिए चुना कि हलचल व पहचान को छुपाए हुए सुरक्षित रहें. ताकि हम बचे रहे संकटों से और अपने काम को निर्बाध करते रहें.’

अपने पसंदीदा लेखक की कहानियों की यह पंक्ति पढने के बाद किताब से नजरें हटाकर सामने देखता हूं कि सराय रोहिल्‍ला रेलवे स्‍टेशन की जिस ट्रेन पर सवार होना है, वह प्‍लेटफार्म पर लग चुकी है; हालांकि उसके रवाना होने में अभी घंटा भर है. रेल के डिब्‍बों के दरवाजे नहीं खुले हैं. सराय रोहिल्‍ला पर आमतौर पर दिल्‍ली के बाकी दो पुराने स्‍टेशनों की तरह भीड़ भाड़ या मारामारी नहीं रहती. इसलिए यह अच्‍छा लगता है.

खैर, वह ट्रेन जिस पर सवार होना है उसके काले शीशों वाले आरक्षित डिब्‍बे फुटओवर ब्रिज की सीढियों के पास लगे हैं. यात्रा शुरू होने से पहले की बैचेनी ट्रेन से लेकर प्‍लेटफार्म तक पसरी है. हल्‍की उमस के बीच यात्रीगण इधर उधर टहल रहे हैं. कि जिन यात्रियों की टिकट कन्‍फर्म नहीं हुई वे बेचैन हैं और टीटी का इंतजार कर रहे हैं. जिनकी टिकट कन्‍फर्म है वे और ज्‍यादा उतावले नजर आते हैं. तीन चार सज्‍जन को देखा जो बोर्ड पर टांगे चार्ट में अपना नाम देखने के बाद डिब्‍बे के बाहर चस्‍पां किए गए चार्ट पर नजर डालते हैं और अपना नाम दिखने के बाद मुंडी हिलाते हुए दूसरी ओर चले जाते हैं. वे पांचेक मिनट बाद फिर यही क्रम दोहराते हैं. वहीं कुछ भाई लोग तो एसी वाले डिब्‍बे के काले शीशों के भीतर देखने की कोशिश करते हैं मानों सीटों की जगह किसी ने  सिंहासन तो नहीं लगा दिए हों. अजब सी बेकली व बालसुलभ जिज्ञासा है.

इस क्रम से इतर देखता हूं तो ज्‍यादातर युवा व प्रौढ स्‍मार्टफोन पर स्‍मार्ट हुए जाते हैं. वे पांच या साढे पांच ईंच की टचस्‍क्रीन पर कुछ अंगुलियों की मदद से एक अलग आभासी दुनिया में पहुंचते हैं और वहां कुछ पल बिताकर फोन को जेब में रख लेते हैं; इधर उधर देखते हैं कि ज्‍यादातर बाकी लोगों की अंगुलियां भी टचस्‍क्रीन पर फिसल रही हैं तो फिर अपना फोन निकालते हैं और चमचमाती स्‍क्रीन के नीचे बसी दुनिया में खो जाते हैं. वास्‍तविकता की कठोर जमीन से दूर बसती यह आभासी दुनिया है. कहने को तो कहा जा सकता है कि चमकती स्‍क्रीनों के पीछे इक अंधेरी दुनिया है. इस तकनीक को लेकर हम जब तक मानसिक व तकनीकी स्‍तर पर विकसित होंगे तब तक तो यह हम जैसे हर इंसान का एक पहलू या आधा सच इसी दुनिया में बसता है. वरना क्‍या वजह है कि यह आभासी दुनिया अनेक तरह के फोल्‍डरनुमा कोठरियों में बंटी हैं जिनके लिए हम कठिन से कठिन पासवर्ड का ताला ढूंढते हैं.

खैर यह आषाढ की एक रात की बात है. रात जो गहरा रही है. चलने को आतुर रेल के सामने लोहे की बैंच पर बैठे हुए अपने प्‍यारे लेखक की कहानियों को पढना शुरू करता हूं और संगरूर का स्‍टेशन आने तक पूरा कर लेता हूं कि-

कभी कभी चुप्‍पी को
बोलना भी चाहिए
हर किसी के पास ऐसी तीन छुट्टियां
और बरसता हुआ मौसम हो जरूरी नहीं है
किसी के पास इतना वक्त नहीं है
कि वह इंतजार में बना रहे.

[किशोर चौधरी का नया कहानी संग्रह जादू भरी लड़की हिंदी युग्‍म प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. आलेख की शुरुआती पंक्तियां व कविता उन्‍हीं की इस किताब से है. किताब यहां से मंगवाई जा सकती है.]


Tagged: जादू भरी लड़की, सराह रोहिल्‍ला रेलवे स्‍टेशन, jadoo bhari ladki, jadu bhari ladki, vaya sarai rohilla

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वाया सराय रोहिल्‍ला

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