अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को मैं हूँ तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझ को मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझ से बचा कर दामन मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझ को तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझ को मुझ से तू पूछने आया है वफ़ा के मा'नी ये तिरी सादा-दिली मार न डाले मुझ को मैं समुंदर भी हूँ मोती भी हूँ ग़ोता-ज़न भी कोई भी नाम मिरा ले के बुला ले मुझ को