भले मैं बोल रहा हूँ
हँस रहा हूँ
पर अंदर तो खाली खाली सा हूँ
कुछ तो है जो खल रहा है
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कुछ तो है
मन और दिल कहीं और है
तन तम में कहीं और है
याद तो बहुत कुछ है
पर वो यादें
कहीं कोने में सिमटी सी
अपने आप को सँभाले हुए
मैं जीवन के इस रण में
सांकेतिक लहू बहाता हुआ
बस आगे बढ़ता हूँ
जीवन का उधार चुकाने का लिये
वो उधार जो मैंने कभी चाहा ही नहीं
कुछ लोग हैं
जो उधार को उधार नहीं मानते
और सामाजिकता को खण्डित कर
कर्तव्यों का निर्वाहन नहीं करते
मैं इन कर्तव्यों के बोझ में
खुद को दबा हुआ महसूस करने लगा हूँ
तभी तो मेरी खुशी मेरे अहसास
सबमें अब विराम आने लगा है।
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