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तुम और मैं

एक ही कमरे में,
एक ही बिस्तर पर पड़े,
आजकल तुम,
कितने अजनबी से लगते हो.....
किन्हीं ख्यालों में खोये......
मैं एकटक निहारती हूँ तुम्हे,
तुम्हारे अन्दर
कहीं गहरे उतर जाना चाहती हूँ,
समेट लेना चाहती हूँ
तुम्हारे ख्यालों को,
अपनी मुट्ठी में....

और तुम्हें,
मेरे होने का
एहसास ही नहीं होता.....
मैं करीब हूँ तुम्हारे,
ये आभास भी नहीं होता।
बस मैं एकटक
निहारती हूँ तुम्हे,
तभी तुम्हारे खर्राटों की
गूँज सुनाई देती है,
एक उम्मीद थी कि शायद
मेरे ही बारे में सोच रहे हो,
या कुछ कहने के लिए
शब्द खोज रहे हो....

मैं भी मुंह फेर कर
सोने का नाटक करती हूँ,
मगर देर रात तक
तकिया भिगोया करती हूँ।
और फिर दिन भर
बात बे-बात तुमसे
लड़ती हूँ, झगड़ती हूँ...
तुम हंस कर
देख लेते हो एक बार,
मैं फ़िर नयी उम्मीद से
बंधती हूँ।

समझ नहीं आता
क्यों इतने रूप बदलती हूँ....
कि तुम तो सदा से
ऐसे ही हो !!!!



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तुम और मैं

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