धरा तो करती है
प्रेम सूर्य से,
घूमती रहती है
उसके चारों ओर ,
अनवरत, अथक....
ओर सूर्य करता है मनमानी -
कभी चमकता है,
धरती की बिंदिया बन कर,
फूल-सी खिल जाती है धरा,
गालों पे टेसू, पलाश,
होठों पे गुलाब,
शर्माती, मुस्कुराती...
जीवन के हसीन रंगों में सराबोर,
हौले से निहारती है अपने रवि को,
और स्वयं ही लजा जाती है।
कभी धधकता है अवि,
अंगारा बन कर,
कुम्हला जाती है अवनि,
सूख जाता है कंठ,
कहना चाहती है बहुत कुछ,
मगर कडा कर के जी को,
खामोश, विकल,
प्रतीक्षा करती है सूर्य के
मान जाने का।
मान जाता है सूर्य,
बरसता है प्रेम बे-इंतहा,
तन मन भिगो जाता है वसुधा का,
बुझ जाती है प्यास,
खनकती है हर ओर,
पायल की झंकार,
मेहँदी रचे खूबसूरत हाथों से
हरियाला दुपट्टा संभालती,
पेड़ की छाँव मैं झूला झूलती,
उर्वी,
खो जाती है कहीं दूर.....
सुनहरे ख़्वाबों में।
फिर,
एक दिन सूर्य,
जा छिपता है कहीं दूर,
सात समुन्दर पार,
शायद....
किसी बदली की आगोश में.....
ओर धरा,
निर्जीव, निष्प्राण,
मानो डाल दिया हो किसीने,
एक कफ़न उस पर,
श्वेत रंग में लिपटी,
द्वार की ओट से
पलकें बिछाए,
फिर प्रतीक्षारत,
अपने सूर्य की।
ये चक्र तो चलता रहेगा....
सूर्य की मनमानी,
व धरा का विवश प्रेम,
घूमती रहेगी धरा,
अपने रवि के चारों ओर,
ओर संसार चलता रहेगा,
यूं ही.....
युगों युगान्तर तक........