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बुधिया सिंह : बॉर्न टू रन

हमारे आस पास कुछ बच्चे ऐसे जरूर होते हैं जिनमें जन्मजात प्रतिभा होती है ,जरूरी है कि उस प्रतिभा को पहचान कर उसे निखारा और संवारा जाए. यह अकेले पेरेंट्स के वश का नहीं है .स्कूल,सरकार और खेल संगठनों की जिम्मेवारी है कि वे इस प्रतिभा को अच्छी ट्रेनिंग और पूरी सुविधाएं प्रदान करें .तभी भविष्य में देश को अच्छे खिलाड़ी मिलेंगे और अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में कुछ मेडल भारत की झोली में भी गिरेंगे . पर होता है, इसके बिलकुल विपरीत .पहले तो प्रतिभा पहचानी नहीं जाती ,संयोगवश कोई विलक्षण प्रतिभा सामने आ गई तो उसे ट्रेनिंग नहीं मिलती, अगर किसी कोच ने स्वयं मेहनत कर ट्रेन करने की जिम्मेवारी ले भी ली तो सरकार और तमाम संगठन उसकी राह में सौ अडचनें डालते रहते हैं
.
'बुधिया सिंह' नाम का छोटा बच्चा हम सबको याद होगा. पर उसकी असाधारण प्रतिभा को उभरने का कोई मौक़ा नहीं दिया गया .
“बुधिया सिंह : बॉर्न टू रन” फिल्म के रिलीज का दिन जानबूझकर ओलम्पिक के एक दिन पहले चुना गया ताकि हम एक पल को रुकें और सोचें . 2002 में जन्मे बुधिया को चार वर्ष की उम्र में उसकी माँ , अत्यंत गरीबी के कारण एक फेरीवाले को महज 800 रूपये में बेच देती है . जब एक जुडो इंस्ट्रक्टर ‘विरंची दास’ जो समाजसेवी भी हैं को पता चलता है तो वे 800 रुपये चुका बुधिया छुडा लाते हैं .वे जुडो क्लास के साथ एक अनाथालय भी चलाते हैं, उसमें अन्य बच्चों के साथ बुधिया को भी रख लेते हैं. एक दिन गाली देने पर बुधिया को सजा देते हैं कि ग्राउंड के चक्कर लगाओ और जबतक मैं न कहूँ, रुकना नहीं. सजा देकर वे अन्य काम से बाहर चले जाते हैं, जब पांच घंटे बाद लौटते हैं तो पाते हैं, बुधिया अब भी वैसे ही चक्कर लगा रहा है .डॉक्टर को दिखाने पर डॉक्टर बताते हैं , उसका शरीर बिलकुल नॉर्मल है .
कोच उसे मैराथन के लिए ट्रेन करना शुरू कर देते हैं और पांच साल की उम्र में बुधिया सिंह 48 मैराथन पूरी कर लेता है . टी वी पर अखबारों में बुधिया की खबरें दिखाई जाती हैं और वह स्टार बन जाता है .विदेशों में भी खबर पहुँचती है ,और बाल कल्याण वाले सक्रिय हो जाते हैं . विरंची दास के तौर तरीके ,उनके गुस्सैल स्वभाव से उडीसा सरकार का बाल कल्याण विभाग भी नाराज़ रहता है , और बुधिया के दौड़ने पर रोक लगा दी जाती है . कई सरकारें और खेल संघ बुधिया के लिए कई हजारों का ईनाम घोषित करते हैं . बुधिया की माँ को लगता है, कोच को सारे पैसे मिलते हैं .और वह विरंची दास पर बुधिया को मारने पीटने, अत्याचार का आरोप लगा देती है .जबकि सारे इनामों की घोषणा महज घोषणा थी, सारे चेक बाउंस कर गए थे .बुधिया को कोच के पास से लेकर एक सरकारी स्कूल के होस्टल में रख दिया जाता है . सिर्फ उडीसा में ही नहीं, पूरे देश को बुधिया की प्रतिभा का पता था पर उडीसा से लेकर देश का कोई भी खेल संगठन बुधिया की कोई खोज खबर नहीं लेता . अगर बुधिया की ट्रेनिंग जारी रखी जाती ,अच्छी कोचिंग दी जाती तो आज इस रियो ओलम्पिक २०१६ में भारत का भी एक मैराथन रनर होता .शायद कोई मेडल भी ले आता. . .स्कूल में बुधिया को कोई विशेष ट्रेनिंग नहीं उपलब्ध करवाई गई और आज वो एक आम छात्र बन कर रह गया है .
पर ये अकेली बुधिया की कहानी नहीं है...जाने कितनी प्रतिभाएं सही देख रेख के अभाव में यूँ ही मुरझा कर विलीन हो गईं . हमारे यहाँ एक और प्रवृत्ति है, जल्दी से जल्दी सबकुछ पा लेने की . विरंची दास का भी बुधिया को इतना ओवर एक्सपोजर देना और रेकॉर्ड बनाने के लिए इस तरह दौड़ने के लिए विवश करना कहीं से सही नहीं ठहराया जा सकता. पांच वर्ष के बुधिया को ‘भवनेश्वर’ से ‘पूरी’ 70 किलोमीटर की दूरी तक दौड़ने के लिए तैयार किया गया . 7 घंटे तक लगतार दौड़ते हुए ६५ किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद बुधिया बेहोश हो गया . जाहिर है, इस खबर के बाद उसके दौड़ने पर बैन लगना ही था . ‘विरंची दास’ उसे अकेले में ट्रेन करते रहते और सही उम्र पर लाइम लाईट में लाते तो सही होता . दुर्भाग्यवश , एक गैंग्स्टर ने 2008 में विरंची दास की हत्या कर दी .इसे पोलिटिकल मर्डर भी कहा गया है .

फिल्म ‘मनोज बाजपेई और बाल कलाकार ‘मयूर पाउले’ के कंधों पर है. मनोज बाजपेई हर फिल्म के साथ अभिनय के नए कीर्तिमान बनाते जा रहे हैं .ओडिया एक्सेंट में उनका डायलॉग बोलना, कभी एक जल्दबाज, गुस्से वाले हार्ड टास्क मास्टर और कभी बुधिया के साथ खेलते एक कोमल दिलवाले गार्जियन सारा अभिनय ,अभिनय ही नहीं लगता .जब होस्टल में बुधिया से मिलने जाते हैं, वह दृश्य बहुत मार्मिक है . मयूर पाउले तो साक्षात् बुधिया ही लगता है .एक पल को महसूस नहीं होता, वो एक्टिंग कर रहा है. भोर में बुधिया का दौड़ना...पुल के नीचे बहती नदी और लहरों पर चमकती उगते सूरज की किरणें, बहुत सुंदर छायांकन है.फिल्म में एक अच्छी बात ये है कि सरकार की कमियाँ दिखाई गई हैं तो कोच विरंची दास की कमजोरियां भी छुपाई नहीं गई हैं . एक छोटे बच्चे को इतनी कड़ी ट्रेनिंग देना , अपनी बात पर अड़े रहना, किसी की ना सुनना सब ईम्नादारी से दिखाया गया है .
बुधिया की कहानी और खेल संघों, सरकार की गंदी राजनीति सामने लाने के लिए लेखक निर्माता निर्देशक सौमेंद्र पाढ़ी (Soumendra Padhi ) बधाई के पात्र हैं . फिल्म थोड़ी धीमी है और कुछ कुछ डाक्यूमेंट्री सी है. पर बोरियत बिलकुल नहीं होती .



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