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काँच के शामियाने पर सरस दरबारी जी की टिप्पणी

बहुत शुक्रिया सरस दी (Saras Darbari )।आपने उपन्यास ही नहीं लिखने की प्रक्रिया भी समझने की कोशिश की ।लिख तो लिया था पर इसे एडिट करने में दो साल लगा दिए ।दिमाग इस दर्द से बचने के सौ बहाने ढूंढ लेता और देर होती जाती ।पर आख़िरकार किया और अब ख़ुशी है कि दिल से लिखी बात दिल तक पहुँच रही है ।
पुनः आभार ।
काँच के शामियाने

कल ही काँच के शामियाने पढ़कर खत्म की ...
रश्मि रविजा की यह कहानी जब पहली बार उनके ब्लॉग पर पढ़ी थी तभी मन बहुत दुखी हुआ था, आखिर इतना दर्द क्यों लिख देता है ऊपर वाला किसी के नसीब में ...
पर जब आसपास देखती हूँ, तो बहुत लोगों को इसी पीड़ा से ग्रस्त पाती हूँ. हो सकता है उसकी डिग्री उतनी न हो, पर उस पीड़ा को ज़्यादातर स्त्रियों ने किसी न किसी रूप में सहा है. और इसीलिए यह कहानी सनातन हो गयी है . हर पाठक ख़ास तौर पर स्त्रियाँ अपने आपको उससे जुड़ा पाती हैं. स्त्रियाँ ही नहीं पुरुषों की प्रतिक्रियाएं भी हमने पढ़ी. जया के दर्द ने सबको झकझोरा है, और पुरुषों को अपने भीतर झाँकने को प्रेरित किया है.
यह रश्मि की कलम का जादू ही है की हर पाठक , जया के दर्द की टीस को महसूस कर रहा है उसके दर्द से विचलित हो रहा है .
किसी के दर्द को समझने के लिए उस दर्द से गुज़रना होता है, उसकी पीड़ा को पूरी शिद्दत से महसूस करना होता है , तभी उस कहानी की सच्चाई , पाठकों तक पहुँच पाती है . .
रश्मि ने यह बखूबी किया है. समझती हूँ इस पूरी प्रक्रिया में उन्होंने भी उस दुःख के सागर को तैर कर पार किया होगा .
इतने सक्षम लेखन के लिए उन्हें दिलसे बधाई और जया जैसी अनेकों स्त्रियों के लिए दिलसे दुआएँ , कि ईश्वर दुनिया की सारी खुशियाँ उनकी झोली में डाल दे और दुःख की परछाईं भी उन्हें न छू पाए .


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