Get Even More Visitors To Your Blog, Upgrade To A Business Listing >>

रंजू भाटिया की कलम से 'कांच के शामियाने ' का अवलोकन

रंजू भाटिया हिंदी ब्लॉग जगत में 2006 से ही सक्रिय हैं . मुझसे बहुत सीनियर :) 
'कुछ मेरी  कलम से ' उनका ब्लॉग है. वे एक संवेदनशील कवियत्री हैं . उनकी  कवितायें  पत्र-पत्रिकाओं  में प्रकाशित  होती रहती हैं और बहुत सराही  जाती हैं . पाक कला में भी बहुत निपुण हैं .कई स्वादिष्ट रेसिपी भी पत्रिकओं के माध्यम से शेयर  करती रहती हैं...अपने बारे में कहती हैं .... 
मेरे बारे में मैं क्या लिखूं ?
ज़िन्दगी के बारे में लिखती बस मेरी कलम ,खाना बनाना ,खाना और घूमना कविता करते हुए शौक बाकी बोलेंगे मेरे लिखे हुए लफ़ज़ और आप जो कुछ पढ़ेंगे और फिर कहेंगे:)
ज़िन्दगी का सार सिर्फ इतना
कुछ खट्टी कुछ कडवी सी
यादों का जहन में डोलना
और फिर उन्ही यादों से
हर सांस की गिरह में उलझ कर

वजह सिर्फ जीने की ढूँढना !!
उनका बहुत शुक्रिया ,समय निकाल कर इस उपन्यास को इतनी बारीकी से पढ़ा और समीक्षा की .
पुनः आभार :)
                               कांच के शामियाने 

" उन सभी के नाम ,जिनकी बातें अनसुनी ,अनदेखी और अनकही  रह गयी "कांच  के शामियाने " का पहला पन्ना और पढ़ने के बाद  लगा कि किसी  के लफ़्ज़ों ने तो उन दिलों की बात कह ही दी जो शायद कभी कह ही न सके ,मैं ,वो या कोई  भी अन्य स्त्री ,आज जिस समाज में हम रहते हैं और जहाँ स्त्री स्वंत्रता का  दावा किया जाता है ,वहां बहुत बदलाव होते हुए भी ,इस लिखे उपन्यास सा सच मौजूद है , आज औरत घर ,बाहर सब तरफ  की जिम्मेदारी बखूबी संभाल रही है ,पर हमारे समाज में पुरुष मन से उस बात को नहीं निकाल पा रही है कि वही सर्वेसर्वा है हर बात का चाहे औरत कितनी भी काबिल क्यों न  हो। ...

"कांच  के शामियाने" उपन्यास एक डायरी के पन्नो सा है जिसमे वक़्त  की चाल पर  जया का चरित्र आज भी शहर ,कस्बे ,गांव में बसी औरतों  के दर्द को ब्यान करता है ,जो समाज को प्रगतिशील होने का दावा करते हुए आईना दिखाती हैं ,पिता की लाड़ली बेटी माँ से अधिक समाज के लिए चिंता का विषय बन जाती है और फिर माँ बुढ़ापे और जिम्मेवारी की दुहाई दे कर बेटी की न नुकर  नहीं सुनती और शादी के लिए जोर देती रहती है ,अब यदि आज के वक़्त जिस में शहर के हालात या लड़कियों की शिक्षा के संदर्भ में देखा जाए तो यह सम्भव नहीं लगेगा जोर जबरदस्ती वाला मामला पर यह भी सच है कि उचित लड़का मिलते ही लड़की ब्याहने और जैसा भी है वही बसने को कहा जाता है अधिकतर ,हाँ कुछ केसेस अपवाद हो सकते हैं।  जया भी पढ़ लिख कर माँ की सेवा करना चाहती है ,शादी की सोच उसके मन  में नहीं पर पड़ोस के राजीव की माँ  जब अपने बेटे के लिए उसका रिश्ता ले के आती है तो जया की माँ को जैसे घर बैठे चिंता से मुक्ति मिलती लगती है ,भाई बहन के लिए अफसर लड़का हर तरह से योग्य नजर आता है और जया की आवाज़ इन सब में खो जाती है ,लड़के वालों की  दहेज़ की मांगे भी तब जया के घर वालों की आँखों के आगे पर्दा डाल देती हैं ,और कोई माने या माने आज प्रगति का दावा होते हुए भी यही सच्चाई है। लड़की की आवाज़ आज भी क्यों दबा दी जाती है ?शादी उसकी है ,जीवन उसका है पर समाज परिवार उसका फैसला करते हैं ,क्यों ?शादी के बाद इतनी प्रताड़ना ,इतनी कठोरता ,क्रूरता ,सब जानते हुए भी लड़की को वहीँ रहने के लिए मजबूर करना पढ़ते हुए एक क्रोध भर देता है। राजीव जैसा बुना हुआ चरित्र जो कहीं अपने ही किसी कपम्प्लेक्स का शिकार है ,आज भी हमें आस पास ही दिखता है। "बेटी तो धरती होती है और धरती की तरह सब सहती है "माँ के जया को समझाते कथन दिल में बेबसी  से    अधिक झंझोर देते है ,पढ़ते हुए दिल करता है कि उस माँ को कहूँ की बेटी की पीड़ा  को समझो उसको सहने की उस हद तक न ले जाओ कि वह खुद के अस्तित्व को ही मिटा दे ,इसी हालात  से गुजरते हुए तीन बच्चे उसके जीवन में एक उम्मीद की किरण लाते हैं ,और वही उसको उस नरक और मानसिक बीमार पति से छुटकारा दिलवाने का साहस बनते हैं।  

उपन्यास जब शुरू किया बहुत जगह  पढ़ते हुए गुस्सा भी आया कि आखिर इतनी बेबसी क्यों बुनी रश्मि ने अपने लफ़्ज़ों में ,पर कुछ सत्य हर किसी की ज़िन्दगी के कहीं  न कहीं करीब होते हैं ,सो  खत्म  किये बिना आप इसको रख नहीं सकते ,यही "रश्मि रविजा "द्वारा लिखे इस उपन्यास की उपलब्धि है। पूरे उपन्यास में हर चरित्र के साथ साथ वहां लिखे गए माहौल को भी मैंने शब्दों के साथ साथ महसूस किया , रहन सहन ,खाना पीना ,जया का रोना ,सहन करना ,रूद्र जया के पहले बच्चे की ख़ुशी और राजीव की असहनीय गाली ,मार ने अपने साथ साथ चलाये रखा ,कहीं कहीं किसी पुराने उपन्यास जैसे पढ़ने का भी एहसास हुआ।

रश्मि रविजा के शब्दों के जादू से ब्लॉग की दुनिया से परिचित हूँ ,इसी जादू ने अपनी मोहकता यहाँ भी बनाये रखी ,बस कुछ जगह लगा कि कुछ चरित्र जैसे माँ ,सास एक औरत होते हुए भी उस दर्द को क्यों नहीं महसूस करवाये रश्मि ने ,चाहे आखिर में जया की माँ ने उसका साथ पूरा निभाया ,पर लगता है कि माहौल को बदलने के लिए अब इस तरह के चरित्र गढ़ने होंगे ,जहाँ सहन करना सम्भव नहीं वहां परिवार उस मुकाम पर आ के साथ न दे जब सहनशीलता खत्म होने के कगार पर हो ,वही से साथ दे जहाँ से शुरू में लगे कि यह अन्याय है ,राजीव जैसे चरित्र  के लोग असहनीय है और इसको नहीं सहना है। यह उपन्यास था जहाँ अंत सुखान्त हुआ पर असल में हर बार यही हकीकत नहीं होती।कहीं कहीं बार बार शब्दों का दुहराव भी है जो थोड़ा सा बोझिल लगता है। पर फिर अपनी रफ़्तार पकड़ लेता है।  

"कांच  के शामियाने " में इस शामियाने शब्द का अर्थ सार्थक हुआ घर तो कभी बना ही नहीं ,एक शामियाना  ही बन सका बस जो बना और बिखर गया ,रोचक उपन्यास है आपने अब तक नहीं पढ़ा तो जरूर पढ़े। रश्मि को मेरी तरफ से इस सफल उपन्यास की बहुत बहुत बधाई। अगले का इंतज़ार शुरू :)


This post first appeared on Apni Unki Sbaki Baate, please read the originial post: here

Share the post

रंजू भाटिया की कलम से 'कांच के शामियाने ' का अवलोकन

×

Subscribe to Apni Unki Sbaki Baate

Get updates delivered right to your inbox!

Thank you for your subscription

×